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अनगार
केशापनेतान्यसलाग्रहीता,
नैर्मल्यकामः क्षमते मलोमिम् ॥ १०६ ॥ रोमछिद्रोंमें रहनेवाले प्रस्वेदमलके निमित्तसे उत्पन्न हुए दाद खाज छाजन आदि अनेक चर्मरोगोंकी पीडासे शरीर युक्त रहते हुए भी जो साधु उसकी तरफ कमी लक्ष नहीं करता प्रत्युत उसमें केवल दया-परिपा. मोंको सिद्ध करने का ही भाव रखता है । क्योंकि उसने शरीराश्रित प्रतिष्ठित बादर निगोदिया जीवोंकी दयाका पालन करनेकेलिये ही उद्वर्तन करनेका और जलकायिक जीवोंकी रक्षा करनेकेलिये ही स्नानका परित्याग कर दिया है । इसी प्रकार जो साधु केशोंका लोच करने में और उसके बाद संस्कार न करनेसे जो पीडा होती है उसको स हन करता है और अन्य मलका ग्रहण नहीं करता उस कर्ममलरूप पङ्कके दूर करनेकी इच्छा रखनेवाले साधुको मालपरीषदका विजयी समझना चाहिये ।
भावार्थ--कर्ममलको दर करनेकी इच्छा और दयापरिणामोंके सिद्ध करने की अभिलाषासे ही मलजनित अनेक बाधाओं और व्याधियों के होते हुए भी उनकी तरफ लक्ष्य न करने को और निर्मम होकर के सोत्साटनादिक करनेको मलपरीषहका विजय कहते हैं।
अध्याग
सत्कारपुरस्कार परीषहके विजयका स्वरूप बताते हैं: -. • तुष्येन्न यः स्वस्य परैः प्रशंसया,
श्रेष्ठेषु चाग्रे करणेन कर्मसु । आमन्त्रणेनाथ विमानितो न वा, रुष्येत्त सत्कारपुरस्क्रियोमिजित् ॥ १०७ ॥