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मनुवार
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परीषहों के न होनेपर भी वेदनीय कर्मका द्रव्य जो सत्ता में बैठा हुआ है उसके सहन करने रूप द्रव्यपरीष की अपेक्षा से वेदनीय कर्म संबन्धी ग्यारह परीषह भगवान् के उपचारसे कही जाती हैं। यही कारण है कि मोक्षशास्त्रमें “ एकादश जिने " ऐसा कहा है । फलतः इस विषय में विधि और निषेध दोनों ही उपपन्न होते हैं । वेदनीय कर्मरूप द्रव्य के सद्भावकी अपेक्षा भगवान् के ग्यारह परीपह हैं, किंतु घातिया कर्म तथा विशेष कर मोहनीय कर्मकी शक्तिकी सहायता से ही वेदनीय कर्म फल दे सकता है । अन्यथा नहीं । और भगवान् के ये कर्म नष्ट हो चुके हैं। अत एव सहायकके विना वेदनीय कर्म जिनभगवान्के अपना फल नहीं दे सकता । फलतः कार्यरूपकी अपेक्षा भगवान् के ये ग्यारह परीषह नहीं होती हैं।
मार्गणाओंकी अपेक्षासे नरकगति और तिर्यग्गतिमें सभी परीषह होती हैं। मनुष्यगति में ऊपर लिखे अनुसार गुणस्थानों की अपेक्षासे सभी परीषह होती हैं। देवगतिमें घातिया कर्मसे उत्पन्न और वेदनीयसे उत्पन्न कुल चौदह परीषद होती हैं । इन्द्रिय और कायमार्गणामें भी सब परीषह होती है। योगमार्गणा में वैक्रियिकद्वयकी अपेक्षा देवगतिके समान, तिर्यश्च और मनुष्योंकी अपेक्षा बाईस, तथा शेष योगों और वेदादिक अन्य मार्गणाओंमें अपने अपने गुणस्थानकी अपेक्षा परीषह हुआ करती हैं।
इस प्रकार बाईस परीषोंके विजयका स्वरूप बताया । अब इसी प्रकरण में गौणतया उपम़गोंके सहन करने का भी उपदेश देना उचित समझकर उदाहरणपूर्वक चारों प्रकारके ही उपसर्गों को जीतनेका उपदेश देते हैं:
स्त्रध्याच्छिवपाण्डुपुत्रसुकुमालस्वामिविद्युच्चर, —
प्रष्टाः सोढविचिन्नृतिर्यगमरोत्थानोपसर्गाः क्रमात् ।
संसारं पुरुषोत्तमाः समहरंस्तचत्पदं प्रेप्सयो,
लीनाः स्वात्मनि येन तेन जनितं धुन्वन्त्वजन्यं बुधाः ॥ १११ ॥
किसी के भी निमित्तसे उत्पन्न हुए या आयर प्राप्त हुए क्लेशविशेषको उपसर्ग कहते हैं । यह चार प्रकार
धर्म
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