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बनगार
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यहांपर कोई प्रश्न कर सकता है कि प्रज्ञा और अज्ञान परीषहमें भी सहानवस्थान विरोध है इसलिये इनमेंसे भी एक कालमें एक ही परीपह हो सकेगी । और फिर वैसा होनेपर एक कालमें एक जीवक १९ परीषहतक होनेका नियम किस तरह स्थिर रह सकता है ? इसका उत्तर सहज है। क्योंकि श्रुतज्ञानकी अपेक्षा प्रजाका प्रकर्ष रहते हुए भी साथमें अवधिज्ञानादिके अभावकी अपेक्षा अज्ञान भी रह सकता है। अत एव इनमें सहानवस्थान विरोधकी कल्पना ठीक नहीं है।
मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत पर्यन्त सात गुणस्थानोंमें सभी-बाईसों परीपह होती हैं । अपूर्वकरणमें अदर्शनके सिवाय शेष २', अनिवृत्तिकग्णक सवेद भागमें अरतिको छोडकर शेष २०, और अवेदभागमें स्त्री परी. पहके विना १९, तथा इसी गुणस्थानमें मानकषायके उदयका अभाव होजानेसे नान्य निषद्या आक्रोश याचना
और सत्कारपुरस्कारका छोडकर शेष १४ , अत एव अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसापराय उपशांतकषाय और क्षीणकपाय इन चार गुणस्थानोंमें १४ परीषह होती हैं । इसके अंतमें प्रज्ञा अज्ञान और अलाभ परीषह नष्ट होजाती हैं इसीलिये सयोगी भगवान्के ११ परीषह ही मानी हैं । सयोगी भगवान्के वेदनाय कर्म सत्ता में रहता है । अत एव तनिमित्तक -१ परीषह जो भी हैं वे उपचारसे मानी जाती हैं। जिन भगवान के सम्पूर्ण घातिया कर्मरूपी इन्धन ध्यानाग्निके द्वारा दग्ध हो चुका है और अप्रतिहत अनंतचतुष्टय उद्भूत हो चुका है, साथ ही उनके अन्तराय समका अभाव होजानेसे निरंतर मातावेदनीयरूप शुभ पुद्गलोंका ही संचय हुआ करता है। यही कारण है कि उनके पनामे बैठा हुआ भी वेदनीय कर्म अपना फल प्रकट नहीं कर सकता । क्योंकि वेदनीय कर्म घातिया कमांकी तथा विशेषकर मोहनीय कर्मकी सहायतासे ही अपना फल प्रकट कर सकता है । अन्यथा नहीं। जिस प्रकार मंत्र या आपधि आदि चलसे मारण शक्तिके नष्ट होजानेपर विपद्रव्य अपना कार्य-मारनेरूप नहीं कर सकता. और जिस प्रकार जाके कटजानेपर कोई भी वृक्ष फल फूल देने में समर्थ नहीं हो सकता, तथा जिस प्रकार उपेक्षा संयमा धारण करनेवाले नौवें और दशवें गुजस्थानवर्ती साधुओंके मैथुन परिग्रह संज्ञा कार्यरूप
राशी एवं जिस प्रकार सम्पूर्ण ज्ञानके धारक व गावानके एकाग्रचिन्तानिरोधरूप लक्षण न रहनेपर भी पार्गिरूप फलकी अपेक्षासे ध्यानका उपचार किया जाता है। उसी प्रकार क्षुधा रोग वध आदि कार्यरूप
अध्याय
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