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भावार्थ-मिथ्यापुराणों में एक कथा प्रसिद्ध है कि विष्णुने एक वार अनेक राक्षसोंको मारा । मारनेसे जो कुछ थोडेसे राक्षस शेष रहे थे उनकेलिये उन्होंने अपने गरुडको मारनेका आदेश किया। बस, फिर क्या था, नम्र उन राक्षसोंका भक्षण करने लगा। किंतु राक्षसोंके साथ साथ एक ब्रामण भी पेटमें चल गया जो कि उसे पचा नहीं । अन्तमें गरुडने उस ब्रामणका बमन कर दिया । इसी प्रकार जो साधु अनेक विद्याओंका अधीश होकर भी ज्ञानमदसे पचता नहीं है वही सत्कार पुरस्कार परीषहका विजयी हो सकता है ।
अज्ञान परिषहके विजयको बताते हैं:पूर्वेऽसिधन् येन किलाशु तन्मे, चिरं तपोभ्यस्तवतोपि बोधः । नाद्यापि बोभोत्यपि तूच्यकेह,
गौरित्यतोऽज्ञानरुजोऽपसर्पेत् ॥ १.९॥ जिस तपके माहात्म्यसे पूर्व कालमें अनेक तपस्वी शीघ्र ही सिद्धिको प्राप्त होगये सुने जाते हैं, उसी तपको चिरकालसे अभ्यास करते हुए भी आजतक मुझको कोई सातिशय अथवा प्रकृष्ट ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ। प्रत्युत मुझको लोक अज्ञानी-मंदबुद्धि देखकर 'यह बैल है' इत्यादि कुत्सित शब्दोंके द्वारा ही बोला करते हैं। इस प्रकारका अज्ञानजनित दुःख जिसके हृदयमें कभी भी उद्भूत नहीं होता उसको अज्ञान परीषहका विजयी समझना चाहिये।
भावार्थ:-जो साधु "तू मूर्ख है, निरा पशु ही है, कुछ नहीं समझता," इस तरह के तिरस्कारके शब्दोंको सुनकर भी सहन करता और निरंतर अध्ययनमें रत रहता है। किंतु मन वचन कायकी अनिष्ट चेष्टाओंसे निवृत्त और महोपवासादिका अनुष्ठान करनेवाला होकर भी ' आज तक मेरे किसी तरहका ज्ञानातिशय उत्पन्न नहीं हुआ' ऐसे दुर्भावसे अभिभूत नहीं होता वही अज्ञानपरीषहका विजयी हो सकता है।
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