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होजानेपर भी दानोद्यत गृहस्थोंको बिजली के चमत्कार की तरह क्षणमात्र के लिये ही एक वार अपना स्वरूप मात्र दिखाकर दाताके दिये हुए आहारको अपने हस्तपुट- दोनो हाथों को ही पात्र बनाकर ग्रहण करते हुए याचना परिषदपर विजय प्राप्त कर सकता हैं ।
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अलाभ परिषहके विजयका स्वरूप दिखाते है:निःसङ्गो बहुदेशचार्य निलवन्मानी विकायप्रती, कारोऽद्येदमिदं श्व इत्यविमृशन् ग्रामस्तभिक्षः परे । बो:स्वपि बह्रहं मम परं लाभालाभस्तपः, स्यादित्यात्तधृतिः पुरोः स्मरयति स्मार्तानलाभं सहन् ॥ १०३ ॥
जो साधु वायुकी तरह निग्रंथ है- किसी भी पदार्थसे संसक्ति नहीं रखता और अनेक देशों में भ्रमण करता रहता है, जो मौनव्रत को धारण करता किंतु अपने शरीरका कभी भी प्रतीकार नहीं करता है। जो कभी इस प्रकारका संकल्प भी नहीं करता कि आज इस घर में विहार करेंगे और कल उस घरमें । जो एक ग्राम में भिक्षा न मिलने पर उसी दिन दूसरे ग्राम में भिक्षा के लिये पर्यटन करनेकी उत्सुकता नहीं रखता, और अनेक गृहों में तथा अनेक दिन तक आहार मिलते रहने की अपेक्षा न मिलना ही मेरे लिये उत्कृष्ट तप है, ऐसा समझता है वह परम संतोषको धारण करनेवाला ऋषि ही अलाभ परीषदका जीतनेवाला समझा जाता है। ऐसा साधु अपने इस उत्कृष्ट धैर्य के द्वारा, उन ऋषियोंको जो कि पर, मागमरूप उद्धार शास्त्र के ज्ञाता तथा तदनुसार आचरण करने वाले हैं; भगवान् आदिनाथका स्मरण करादेता है। भावार्थ - आहार के लाभसे अलाभको ही श्रेयःसाधन समझकर अपने उत्कृष्ट धैर्य से विचलित न होना ही अलाभ परीषहका विजय समझा जाता है ।
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रोगपरीष के विजयका स्वरूप बताते हैं:तपोमहिम्ना सहसा चिकित्सितुं,
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धर्म०
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