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अनगार
शक्तोपि रोगानतिदुस्सहानपि । दुरन्तपापान्तविधित्सया सुधीः,
स्वस्थोधिकुर्वीत सनत्कुमारवत् ॥ १.४॥ शरीर और आत्मामें भेदज्ञान रखनेवाला जो साधु एक साथ उपस्थित हुई अत्यंत दुस्सह कुष्टादिक अनेक व्याधियोंका विशिष्ट तपके वलसे प्राप्त हुई जल्लोषधि आदि अनेक ऋद्धियोंके द्वारा क्षणमात्र प्रतीकार करने केलिये समर्थ होते हुए भी प्रतीकार नहीं करता किंतु सनत्कुमार चक्रवर्तीकी तरह दुःखद पापकर्मोंका विनाश करने की इच्छासे निराकुल होकर उनकी बाधाका सहन करता है उसको रोगपरीपहका विजयी समझना चाहिये ।
तृणस्पर्श परीषहके सहनेका स्वरूपनिर्देश करते हैं:तृणादिषु स्पर्शखरेषु शय्यां भजन्निषद्यामथ खेदशान्त्यै ।
संक्लिश्यते यो न तदर्तिजातखर्जुस्तृणस्पर्शतितिक्षुरेषः ॥ १०५ ॥ सूखे तृण पत्ते या ककरीली भूमि अथवा पत्थरकी शिला यद्वा ऐसी कण्टकित भूमिपर जो कि छूनेमें भी कर्कश मालुम होती है, व्याधि, मार्ग में विहार अथवा ठंडी गर्मी आदिके निमित्तसे उत्पन्न हुए श्रम--खेदको दूर करनेकेलिये शयनासन करनेवाला जो साधु उन शुष्क तृणादिककी पीडासे खुजली आदि विकारों के उत्पन्न होने पर भी उनसे संक्लिष्ट -खिन्न नहीं होता उसको तृणस्पर्श परीषहका विजयी समझना चाहिये ।
मलपरीषहके विजयको दिखाते हैं:रोमास्पदस्वेदमलोत्थसिध्म,प्राया|वज्ञातवपुः कृपावान् ।
बध्याय