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संतन्वती रहसि कूर्मवादन्द्रियाणि,
संवृत्त्य लघ्वपवदेत गुरूक्तियुक्त्या ॥ ९६ ॥ रागदेषके निमित्तसे अथवा यौवनका गर्व रूपका मद विभ्रम या उन्माद और मद्यपानके आवेशसे नष्ट होगई है बुद्धि जिसकी ऐसी युवती स्त्री यदि कदाचित् चित्तको विकृत बनानेकेलिये एकान्तमें नाना प्रकारके अनुकूल और प्रतिकूल भावोंको करनेका सतत प्रयत्न करे तो साधुओंको शीघ्र ही गुरुनिरूपित युक्ति--विधानके अनुसार अपनी इन्द्रियोंका कच्छपकी तरह संकोच कर उसका निराकरण करदेना चाहिये।
भावार्थ-जिस प्रकार किसी आपातके उपस्थित होते ही कच्छप अपने हाथ पैर ग्रीवा आदिको सं. कोच लेता है उसी प्रकार विकृतमति तरुणयोंके द्वारा एकान्तमें किये गये मनको मलिन करनेवाले विविध प्रकारके अनुकूल प्रतिकूल भावोंके आघातके उपस्थित होते ही साधुओंको अपनी इन्द्रियां संकुचित करलेनी चाहिये। ऐसा करनेपर ही स्त्रीपरीषहपर विजयलाभ हो सकता है। क्यों कि जो मुनि स्त्रियोंके दर्शन स्पर्शन आलाप अभिलाषादिमें उत्सुकता नहीं रखता तथा जो उनके नेत्र मुख भौंह आदिके विकारों एवं रूप गमन हसी लीला जमाई पीनोन्नत स्तन जघन उरुमूल कांख और नाभि आदि स्थानोके देखनेपर भी विकृतमना नहीं होता और जिसने वंशगीतादिके सुनने आदि तायीत्रकका परित्याग करदिया है वही साधु स्त्रीपरीषहका विजयी कहा जा सकता है।
वपरीपाको सहनेका निरूपण करते हैं:
बिभ्यद्भवाच्चिरमुपास्य गुरून्निरूढ,ब्रह्मवतश्रुतशमस्तदनुज्ञयैकः । क्षोणीमटन् गुणरसादपि कण्टकादि,कष्ट सहन्त्यनषियन् शिबिकादिचर्याम् ॥ ९७॥
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