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अनगार
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त्यन्वङ्गं निशि काष्ठदाहिनि हिमे भावांस्तदुच्छेदिनः। अध्यायन्नधियन्नधोगतिहिमान्यतीर्दुरन्तास्तपो,
बर्हिस्तप्तनिजात्मगर्भगृहसंचारी मुनिर्मोदते ॥ ९१ ॥ शीत ऋतुके दिनोंमें रात्रिके समय जब कि प्रत्येक प्राणीके ऊपर उस हिम-तुषारका पतन हुआ करता है जिससे कि बडे बडे वृक्ष और वनस्पति भी दग्ध हो जाया करते हैं, मुनिजन उस चौरायपर जाकर निवास करते हैं जहाँपर कि चारो ही तरफकी हवा चलती रहती है । उस समय वे साधुजन संतोषरूपी अद्वितीय वस्त्रको धारण करते हैं। किंतु जिनसे कि शीतकी बाधा दूर की जासकती है ऐसे पूर्वानुभूत पदार्थों का स्मरण मी नहीं किया करते । हां, अधोगति-नरकोंकी तीन शीतजनित वेदनाओं का स्मरण अवश्य किया करते हैं। तथा तपस्यारूपी अग्निसे संतप्त हुए अपने आत्मस्वरूप गर्भगृह-तलघर में विहार करते हुए आनन्दका अनुभव किया करते हैं।
___ भावार्थ- मुख्यतया चार कारणोंसे शीतपरीषहका निग्रह किया जासकता है-१ संतोपमे, २ पूर्वानुभूत रजाई अंगीठी गंधतैल और केशर आदिका स्मरण न करनेसे, ३ नरकादिकी शीतवेदनाओंके स्मरणसे, और ४ आत्मस्वरूपमें लीन रहनेसे।
उष्ण परीषहको सहनेका उपाय बताते हैं:-- अनियतविहृतिर्वनं तदात्वज्वलदनलान्तमितः प्रवृद्धशोषः ।
तपतपनकरालिताध्वाखन्नः स्मृतनरकोष्णमहार्तिरुष्णसात्स्यात् ॥ ९२ ॥ साधुओंका विहार अनियत हुआ करता है। क्योंकि वे सदा एक स्थानमें अवस्थित नहीं रहा करते। अत एव ग्रीष्मकालमें सूर्य की प्रचण्ड किरणोंसे संतप्त मार्गमें गमन करनेके कारण खेदको प्राप्त हुए और इसी लिये
अध्याय
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