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अनगार
हुई तीव्र आहारवाधाओंका विचार करके वर्तमान बाधाकी नगण्यताका विचार कर उक्त आवश्यकों और तपोऽनुष्ठानोंमें अपने उत्साहको और भी अधिक उद्दीप्त करना चाहिये ।
पिपासा परीषहमें तिरस्कार प्रकट करते हैं:पत्रीवानियतासनोदवसितः स्नानाद्यपासी यथा.. लन्धाशी क्षपणाध्वपित्तकृदवष्वाणज्वरोष्णादिजाम् । तृष्णां निष्कुषिताम्बरीषदहनां देहेन्द्रियोन्माथिनीं,
संतोषोद्धकरीरपूरितवरध्यानाम्बुपानाजयेत् ॥ ९॥ पक्षियोंके समान साधुजन भी एक जगह स्थिर नहीं रहते-वे सदा भ्रमण ही करते रहते हैं। न उनका कोर्ड घर ही नियत है। वनोंमें या पर्वतोंकी कन्दराओंमें अथवा यत्र तत्र बनी हुई वसतिकाओं आदिमें ही वे निवास किया करते हैं । पानीके न मिलनेपर स्नानादि करनेसे भी कदाचित् मनुष्योंको शान्तिलाम हो सकता है । किंतु साधुजन स्नान अवगाहन परिषेचन शिरोलेपन आदि सभी उपचारोंका परित्याग करनेवाले हैं। वे केवल यथाप्राप्त भोजन ग्रहण करते हैं जिससे कि उल्टी तृष्णा-प्यास बढ ही सकती है। फिर भी आत्मसिद्धिकी साधनामें प्रवृत्त हुए साधुओंको उपवास मार्गगमन तथा कडुआ कसेला नमकीन आदि पित्तवर्धक आहार एवं ज्वरजनित सताप और उष्णता या मरुदेश प्रभृति कारणोंसे उत्पन्न हुई भाडकी अग्निको भी जीतने वाली और शरीर तथा इन्द्रियोंको कदर्थित करडालनेवाली पिपासाका संतोषरूपी माघमासके बने हुए प्रशस्त घटमें प्राप्त उत्कृष्ट धर्म्य और शुक्लध्यानरूपी जलका पान करके शमन करदेना चाहिये।
शीतपरीषहको जीतनेका उपाय बताते हैं:विष्वक्चारिमरुञ्चतुष्पथमितो धृत्येकवासाः पत,
अध्याय