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बना
धन
अभ्यास करना चाहिये । यही कारण है कि यहांपर मुमुक्षुका सबसे पहला विशेषण " सोढाशेषपरीपहः" दिया है। इस विशेषणको स्पष्ट करनेके लिये सबसे पहले क्षुधापरीषहपर जय प्राप्त करनेका विधान करते हैं:
षटर्मीपरमादृतेरनशनाचाप्तऋशिम्नोऽशन,स्यालाभाच्चिरमप्यरं क्षुदनले भिक्षोर्दिधक्ष्यत्यसून् । कारापञ्जरनारकेषु परवान् योऽभुक्षि तीव्राः क्षुधः,
का तस्यात्मवतोऽद्य मे क्षुदियमित्युज्जीव्यमोजो मुहुः ॥८॥ छह आवश्यक क्रियाओंके करने में परम आदर भाव रखनेवाले और अनशनादिक बाह्य तपोंके करनसे अत्यंत कृशताको माप्त हुए भिक्षु- भिक्षान्नवृत्ति करनेवाले संयमी साधुको चिरकाल तक-वर्षभरतक भोजनके न मिलनेसे यदि क्षुधा वाधारूप अग्नि शीघ्र ही प्राणोंको भी दग्ध करदेनेके लिये प्रवृत्त हो तो इस प्रकार विचार करके अपने उत्साहको बार बार उद्दीप्त करना चाहिये कि -
मनुष्य पर्यायमें जेलखानेमें, तिथंच पर्यायके धारण करनेपर पिंजरे आदिकमें, और नारक पर्यायके अन्दर नरकादिकोंमें पराधीन होकर जैसी जैसी मैंने तीव्र क्षुधाबाधाएं सही हैं या मुझे सहनी पडी उनकी अपेक्षा आज, जब कि मैं आत्माधीन--स्वतंत्र हूं, मेरी यह क्षुधाबाधा तो चीज ही क्या है? कुछ भी नहीं।
भावार्थ -चिरकाल तक उपवास करनेसे जठराग्नि प्राणोंको भी दग्ध किया करती है। जैसा कि वैद्य, क ग्रन्थों में भी लिखा है कि:
आहार पचति शिखी दोषामाहारवर्जितः पचति ।
दोषक्षये च धातून पचति च धातुक्षये प्राणान् ।। । अत एव चिरकाल तक तपस्या और उपवासोंके करनेसे यदि ऐसी भी अवस्था आकर उपस्थित होजाय तो भी साधुओंको अपने आवश्यक कर्मों और तपोऽनुष्ठानोंसे विचलित न होना चाहिये, किंतु "पूर्व जन्मोंमें भोगी