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हैं-कहीं भी उसका अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता । इस प्रकार भयका उद्भावन कर परीषह और उपसर्गों को जीतनके लिये समथुनोंको उद्युक्त करते हैं:--
विक्लवप्रकृतियः स्यात् क्लेशादायासतोथवा ।
सिद्धस्तस्यात्रिकध्वंसादेवामुत्रिकविप्लवः ॥ ८६ ॥ जो व्याधि आदिक बाधाओंसे अथवा परिश्रमसे घबडा जानेवाला है उसके अभीष्ट-पारलौकिक कल्या. णका विनाश निश्चित है। क्योंकि उसकी तीनो बातें नष्ट हो जाती हैं। जिसका फल इसी लोकमें प्राप्त करना चाहता है उसका और जिसका फल परलोकमें प्राप्त करना चाहता है उसका तथा जो कार्य शुरू किया है उसका, इस तरह तीनों ही नष्ट हो जाते हैं।
जिस साधुका मन अत्यंत तीव्र उपसगों और परीषहोंके बार बार आपडनेपर भी विचलित नहीं होता उसीको अभीष्ट निःश्रेयस पदकी प्राप्ति हो सकती है, ऐसा उपदेश देते हैं:
क्रियासमभिहारेणाप्यापतद्भिः परीषहैः ।
क्षोभ्यते नोपसर्ग योपवर्ग स गच्छति ॥७॥ प्रचुर प्रमाणमें और बार बार भी आपडनेवाले परीषह तथा उपसर्गों-देव मनुष्य तियच अथवा अचेतन निभित्तसे होनेवाले पीडाविशेषोंके द्वारा जिसका हृदय क्षुब्ध-चलायमान नहीं होता ऐसा ही मुमुक्षु साक्षात् मोक्षको प्राप्त कर सकता है।
जिसने परीषहोंपर विजय प्राप्त करनेका अभ्यास पहलेसे ही करलिया है ऐसा धीर वीर व्यक्ति ही क्रमसे घाति कौका क्षय करके लोकके अन्त में प्राधान्यको प्राप्त किया करता है
सोढाशेषपरीषहोऽक्षतशिवोत्साहः सुदृग्वृत्तभाग,
अध्यात्र
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