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बालकोंको व्युत्पत्ति करानेकेलिये परीषदोंका सामान्य लक्षण फिरसे विस्तारपूर्वक बताते हैं:
शारीरमानसोत्कृष्टबाधहेतून् क्षुदादिकान् ।
प्राहुरन्तर्बहिर्द्रव्यपरिणामान् परीषहान् ॥४॥ 'अन्तरङ्ग द्रव्यजीवके क्षुधा पिपासा आदि परिणामोंको और बाह्य द्रव्यपुद्गलके शीत उष्णता आदि जो शारीरिक अथवा मानसिक उत्कृष्ट बाधाओंके कारण हों ऐसे परिणामोंको आचार्य परीषह कहते हैं।
जो आत्मकल्याणके अभिलाषी हैं उनको चाहे जितने विनोंके आपडनेपर भी आरब्ध श्रेयोमार्गसे हटना न चाहिये । इस बातकी शिक्षा देते हैं:
स कोपि किल नेहाभुन्नास्ति नो वा भविष्यति ।
. यस्य कार्यमविप्नं स्यान्न्यक्कार्यों हि विधेः पुमान् ॥ ८५॥ जिसका कोई भी कार्य विनरहित हो ऐसा कोई भी पुरुष न तो आजतक हुआ, न वर्तमानमें है, और न आगे ही होगा क्योंकि निश्चयसे दैव पुरुषका अभिभव किया ही करता है। शास्त्र और लोक दोनों ही जगैहें यह बात प्रसिद्ध है कि " श्रेयांसि बहुविनानि भवन्ति महतामपि" अत एव विचारशील साधुओंको श्रेय साधनका प्रारम्भ करके विनोंके भयसे उसको कभी भी न छोडना चाहिये । जैसा कि अन्य लोगोंने भी कहा है।
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः। विनैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः,
प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजन्ति ॥ जो साधु दुःख और परिश्रमसे घबडा जाता है उसका यह लोक और परलोक दोनो ही भ्रष्ट हो जाते
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