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अनगार
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वडा यत्किंचिदन्तःकरणकग्णजिद्वोत्ति या स्वं स्वयं स्वे । उच्चैरुच्चैःपदाशाधरभवविधुराम्भोधिपाराप्तिराज
स्कार्थ्यः पूतकीर्तिः प्रतपति स परैः स्वैर्गुणैर्लोकमूर्तीि ॥ ८२ ॥ परमागम ही हैं नेत्र जिसके ऐसा जो मुमुक्षु अनित्य अशरण संसार एकत्व अन्यत्व अशुचित्व आस्रव संवर निर्जरा लोक बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व इन बारह अनुप्रेक्षाओं में से जिनका कि स्वरूप ऊपर लिखा जा चुका है, यथारूचि एक अनेक अथवा सभीका तत्वतः ध्यान करता है वह मन और इंद्रियां दोनोंपर विजय प्राप्त करके आत्मामें ही आत्माका स्वयं अनुभव करने लगता है । तथा जहांपर महर्द्धिक देव चक्रवर्ती इन्द्र अहमिंद्र और गणधर तथा तीर्थकर नामके उन्नतोन्नत पदोंको प्राप्त करनेकी अभिलाषा लगी हुई है और इसी लिये जो निन्ध समझा जाता है ऐसे संसारके दुःख समुद्रस पार पहुंचकर शोममान कृतार्थ-कृतकृत्यताको प्राप्त कर लेता है। क्योंकि संसारके सम्पूर्ण पदोंसे संतोष होजानेको कृतकृत्यता कहते हैं वह संसारके उस पार ही प्रकाशमान है। इस प्रकार वह मुमुक्षु पवित्र यश और वचनोंको धारण करके जीवन्मुक्त बनकर अन्तमें अपने-आत्मिक-सिद्ध आस्था प्रकट होनेवाले सम्यग्दर्शनादिक उत्कृष्ट गुणोंके द्वारा तीनो लोकोंके ऊपर-लोक अनमें प्रदीत होता है ।
दुःखोंका अनुभव किये बिना यदि ज्ञानका अभ्यास किया जाय तो वह प्रायः दुःखोंके उपस्थित होते ही नष्ट भ्रष्ट-आत्मानुभवसे च्युत हो सकता है । अत एव मुनियों को चाहिये कि वे आत्माका धान या विचार अपनी शक्तिके अनुसार दुःखोंके साथ साथ ही किया करें । जैसा कि कहा भी है कि--
अदुःखभावित ज्ञान क्षीयते दुःखसन्निधौ ।
तस्माद्यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः ।। इसी बात को ध्यानमें रखकर अनुप्रेक्षाओं के अनंतर परीषदोंका वर्णन करने के लिये उनकी विशेष संख्या. को अन्तर्गमित करके उनका सामान्य लक्षण बताते हुए इस बात का निर्देश करते हैं कि इन क्षुत्पिपासा आदि
अध्याय
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