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अनगार
जो मुमुक्षु सम्यग्दर्शनादिक गुणोंकी विगुणता-मिथ्यादर्शनादिरूप परिणतिके द्वारा अपने प्रदेशोंकौके द्वारा मलीमस हुए चेतनाके अंशोंमें अनुप्रवेश करके यथासमय स्वयं भ्रष्ट होते हुए-उदयमें आकर और फल देकर आत्मासे सम्बन्ध छोडकर निर्जीर्ण होते हुए कर्मरूपी शत्रुओंकी उपेक्षा करदेता है, और जो कर्म अपना फल देनेके लिये उन्मुख हैं उनका उन उन अनशन अवमौदर्य वृत्तिपरिसंख्यान आदि प्रसिद्ध उपायोंके द्वारा खण्ड खण्ड करके प्रयोगपूर्वक क्षय कर देता है. तथा परीषह और उपसगोंके द्वारा क्षोभको प्राप्त न होकर आत्मसम्पत्तिमें ही निरंतर आसक्त रहता है उसके तपोतिशयकी गृद्धिरूप बाह्य लक्ष्मीकी गोदमें बैठे रहनेपर भी उससे अन्तरङ्ग लक्ष्मी--अनन्तज्ञानादिविभृति कटाक्षोंके द्वारा रमण किया करती है।
भावार्थ-जो साधु यथासमय स्वयं पककर गलनेवाले काँकी संवरपूर्वक निर्जरा कर देता है तथा औपक्रमिक कर्मोंका अंशतः क्षय करता है उस तपस्त्रीको शीघ्र ही अन्तरङ्ग लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है।
। निर्जरा दो प्रकारकी हुआ करती है-एक बन्धसहभाविनी, दूसरी संवरसहभाविनी। पहले प्रकारकी निजरी अनादिकालसे होती आरही है । उसके फलको कहते हुए दूसरे प्रकारकी निर्जराका फल जो आत्मध्यान ही है उसकेलिये प्रतिज्ञा करते हैं। :
भोजं भोजमुपात्तमुज्झति मयि भ्रान्तल्पशानल्पशः, स्वीकुर्वत्यपि कर्म नूतनमितः प्राक् को न कालो गतः। संप्रत्येष मनोऽनिशं प्रणिदधेऽध्यात्मं न विन्दन्बहि,दुःखं येन निरास्रवः शमरसे मन्जन्भजे निर्जराम् ॥ ७५ ॥
अध्याय
६२७
अवतक मेरा जो काल व्यतीत हुआ है उसके प्रत्येक क्षणमें मैंने संचित कोक भोग भोगकर छोडे तो थोडे परंतु अनादि मिथ्यात्वके संस्कारके वशमें पडकर शरीर और आत्मामें एकत्वका निश्चय करके नवीन