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अनगार
इस प्रकार जो साधु इस लोकके स्वरूपका और उसमें सर्वत्र यथायोग्य स्थानोंमें रहनेवाले किंतु काँदयकी अग्निसे सदा संतप्त रहनेवाले देव नारकी मनुष्य और तिर्यंच जीवोंका ध्यान करता है उसका मन सिद्धिके लिये दौडने लगता है। वह इस लोकके बाहर सिद्धक्षेत्र-लोकके अग्रभागको अथवा निज-आत्मस्वरूप क्षेत्रको पानेका विचार करने लगता है । अतएव मुमुक्षु साधुओंको इस लोकके स्वरूपका विचार निरंतर करते रहना चाहिये।
जो साधु लोकके स्वरूपका भले प्रकार विचार करता रहता है उसके संवेगगुणकी सिद्धि होती है। जिससे कि मुक्ति प्राप्त करनेकी सामर्थ्य उसमें प्रकट होजाती है । इसी बातको बताते हैं:
लोकस्थिति मनसि भावयतो यथावदू, दुःखार्तदर्शनविजृम्भितजन्मभीतेः। सद्धर्मतत्फलविलोकनरञ्जितस्य,
साधोः समुल्लसति कापि शिवाय शक्तिः ॥ ७७ ॥ इस प्रकार साधु जो उपर्युक्त लोकके स्वरूपका अपने मनमें बार बार और यथावत् विचार करता रहता है उसको दुःखोंसे पीडित रहनेवाले लोकोंका अवलोकन करनेके कारण संसारसे भय उत्पन्न होता है जिससे कि शुद्धात्माके अनुभवरूप श्रेष्ठ धर्म तथा उसके परमानन्दरूप फलमें उसको अनुराग होता है । इस संसारसे मीरुतारूप संवेग और धमके अनुरागसे ही उस साधुके मोक्षको प्राप्त करनेके लिये वह शक्ति प्रकट होजाती है जो कि अलौकिक तथा अनिर्वचनीय है।
जो इस प्रकार निरंतर विचार करता रहता है उसके तत्वज्ञानकी विशुद्धि हुआ करती है। क्रमप्राप्त बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं:
जातोत्रैकेन दीर्घ घनतमसि परं स्वानभिज्ञोऽभिजानन्,
बध्याय