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झते हैं कि यह सदासे नहीं है-कभी न कभी किसी न किसीने इसको बनाया था और कभी नष्ट भी हो जायगा किंतु यह बात नहीं है, यह सदासे और स्वयं आकाशमें ठहरा हुआ है । कभी किसीने इसको न तोधारण ही किया
और न उत्पन्न ही किया है । यह जीव पुद्गल धर्म अधर्म और आकाश काल इन छह द्रव्योंसे व्याप्त है। अथवा इन छह द्रव्योंके समूहको ही लोक समझना चाहिये । आधे मृदंगको खडा रखकर उसके मुखपर पूरा मृदंग खडा करनेसे जैसा आकार बने वैसा ही इस लोकका आकार है । अथवा इस लोकके तीन भेद हैं । अधोलक ऊर्ध्व लोक
और मध्य लोक । वेत्रामनके आकार अधोलोक, मृदंगके आकार ऊर्ध्व लोक, और झल्लरीके आकार मध्यलोक है । यह सम्पूर्ण लोक घनोदधि धनवात और तनुवात इन वातवलयोंसे इस प्रकार सर्वत्र वेष्टित है जैसे कि तीन त्वचाओंसे वृक्ष वेष्टित रहा करता है । सम्पूर्ण द्रव्योंका समुदायरूप यह लोक अत्यंत महान् है । इसमें ऊंचाई, मोटाई और चौडाई तीनों बातें पाई जाती हैं । इस घनरूप आकारसे लोकका कुल विस्तार तीनसौ तेतालीस राजूका होता है । इस प्रकार अत्यंत विपुल यह लोक सृष्टि और संहारसे सर्वथा रहित है । जैसा कि कहा भी है कि:
लोओ अकिट्टिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिबंधो।
जीवाजीवेहिं फुदो सव्वागासऽवयवो णिच्चो । इस लोकके अधो भागमें नरक हैं, जहांपर कर्मों के उदयरूप आग्निसे संतप्त नारकी निवास करते हैं। ऊर्ध्व भागमें स्वर्ग हैं जहाँपर कि वैमानिक देव रहते हैं । ये देव भी ज्ञानावरणादि पापकर्मोंकी उदयानिसे दग्ध ही रहा करते हैं । मध्यलोकमें असंख्यात द्वीप समुद्रोंमेसे ढाई द्वीप और दो समुद्रोंका मनुष्यक्षेत्र है जिसका प्रमाण १५ लाख योजनका होता है। मनुष्य इसी क्षेत्र में रहते हैं। कर्मोदयके संतापसे ये भी बचे हुए नहीं हैं । ये भी तापत्रयसे पीडित ही हैं । इनके सिवाय तिथंच जीव सर्वत्र भरे हुए हैं। वैमानिक देवोंके सिवाय शेष देवोंके स्थान भिन्न स्थानोंमें हैं । नागकुमारादिक नव प्रकारके भवनवासी देव इस पृथ्वीके खर भागमें रहा करते हैं, असुर कुमार और राक्षस पंक भागमें रहा करते हैं । तथा व्यंतरोंका निवास चित्रा और वज्रा पृथ्वीके संधिस्थानसे लेकर मेरुपर्यन्त और तिर्यक् भी सर्वत्र है । ज्योतिषी देवोंका स्थान इस भूमिसे सातसौ नब्भे योजन ऊपर जाकर आकाशमें है।
अध्याय