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अनगार
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कमोंका ग्रहण अधिक प्रमाण में किया। अब तक मेरे बन्धसहभाविनी ही निर्जरा हुई है जिससे कि प्रत्येक क्ष
णमें कर्मोंकी जितनी निर्जरा हुई थी उसकी अपेक्षा कहीं अधिक कर्मोंका बन्ध होता रहा है । क्योंकि नरकादि| कोंमें कर्मके वशसे होनेवाली अबुद्धिपूर्वक निर्जराका नाम ही अकुशलानुबंधिनी प्रसिद्ध है । इस प्रकार अबतककी
निर्जराका फल बन्ध ही रहा है । अत एव अव मैं स्वस्वरूपका प्रत्यक्ष होजानेपर अपने मनको आत्मस्वरूपमें ही नियुक्त रक्खूगा । जिससे कि परीपह और उपसर्गादिकोंके द्वारा होनेवाले दुःखों की तरफ बे खबर रहकर और पूर्वकृत अशुभ कर्मोंके आस्रवका निरोध करके तथा प्रशमसुखमें निमग्न रहकर कर्मों के एकदेश क्षयरूप निर्जराको कर सकूँ । इस संवरसहभाविनी निर्जराको ही कुशलानुवन्धिनी भी कहते हैं। यह परीषहाँका विजय करनेपर होती है । अत एव इसकेलिये आत्मस्वरूपकी तरफ ही मनको सदा प्रवृत्त रखना चाहिये । क्योंकि ऐसा करने से ही बास्तविक कर्मोंकी निर्जरा और प्रशमसुखकी प्राप्ति हो सकती है।
इस प्रकार निर्जराके गुण और दोषोंका विचार करनेवाला साधु कुशलानुबन्धिनी निर्जराकेकिये प्रवृत्त हुआ करता है ।
लोकानुप्रेक्षा क्रमप्राप्त है । अत एव लोक और अलोकके स्वरूप का निरूपण करके उसका विचार करनेसे | जो निजात्मस्वरूपके प्राप्त करने की योग्यता उत्पन्न होती है उसको बताते हैं:
जीवाद्यर्थचितो दिवर्धमुरजाकारखिवातावृतः, स्कन्धः खेतिमहाननादिनिधनो लोकः सदास्ते स्वयम् । तन् मध्येत्र सुरान् यथायथमधः श्वाभ्रांस्तिरश्चोमितः,
कोंदर्चिरुपप्लुतानधियतः सिद्धयै मनो धावति ॥ ७॥ जहांपर जीवादिक पदार्थ देखनेमें आवें उसको लोक कहते हैं । बहुतसे लोग समझते हैं कि यह लोक शूकरकी डाइपर या गौकी पूंछपर अथवा कछुएकी पाठपर या शेष नागके फणपर ठहरा हुआ है। कोई कोई सम
अध्याय