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अनगार
वीर योद्धाओंकी योजना ही अपने यहां भी करलेता है । क्योंकि ऐसा करनेपर वह दारिद्रयादि दुःखोंका फल भुगा. नेवाले सम्पूर्ण अमात्यादिकोंका नाश कर देता है। इतना ही नहीं किंतु अपने ऊपर विजयलक्ष्मी अथवा अभ्युदय संपत्तियोंको उत्कण्ठित भी बना लेता है । इसी प्रकार जो विचारशील मुमुक्षु अपने शुद्धात्मस्वरूपका घात करनेके लिये बढ रहा है पराक्रम जिनका ऐसे मिथ्यात्वप्रभृति शत्रुओंके बलका निरोध करनेकेलिये यथायोग्य शुद्ध सम्य. ग्दर्शनादिक सुभटोंकी योजना करता है । वह न केवल नरकादिकोंमें परिभ्रमण करना ही है फल जिनका ऐसी सम्पूर्ण पापप्रकृतियोंको ही नष्ट कस्ता है, किंतु हर्षके साथ कहना पडता है कि वह देवेंद्र-नरेन्द्रादिकोंकी विभूतियों अथवा मोक्षलक्ष्मीको भी अपना उपभोग करनेकलिये अपने ऊपर उत्कण्ठित बनालेता है।
भावार्थ-जो साधु सम्यग्दर्शनके द्वारा मिथ्यात्वका, ज्ञानके द्वारा अज्ञानका, समिति द्वारा अविरतिका, संयमके द्वारा इन्द्रियासंयमका, व्रतोंके द्वारा प्राणासंयमका, उत्साहके द्वारा प्रमादका और क्षमाके द्वारा क्रोधका तथा मार्दवके द्वारा मानका या आर्जवके द्वारा मायाका अथवा शौचके द्वारा लोमका तथा इसी प्रकार अन्य मी यथायोग्य उपायोंसे आस्रवके भेदोंका निरोध करदेता है; उसके सम्पूर्ण पापकर्मों का नाश हो जाता है और अभ्यु - दयोंकी सिद्धि होती है।
ऐसा विचार करते रहनेवाला साधु निरंतर संवर करने प्रयत्नशील मना रहता है। निर्जराके स्वरूपकी विचार करनेके लिये उसका फल प्रगट करते हैं:
यः स्वस्याविश्य देशान् गुणविगुणतया भ्रश्यतः कर्मशत्रून्, कालेनोपेक्षमाणः क्षयमवयवशः प्रापयंस्तप्तुकामान् । धीरस्तैस्तैरुपायैः प्रसभमनुष जत्यात्मसंपद्यजस्रं, तं बाहीकश्रियोङ्क श्रितमपि रमयत्यान्तरश्रीः कटाक्षः ॥ ७४ ॥
अध्याय