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अनगार
नैरात्म्यं जगत इवार्य नैर्जगत्सं, . निश्चिन्वन्ननुभयसिद्धमात्मनोपि । मध्यस्थो यदि भवसि स्वयं विविक्तं,
स्वात्मानं तदनुभवन् भवादपैषि ॥ ६६ ॥ ..." अहं" या " मैं" ऐसी जिसमें प्रतीति होती है उसको आत्मा कहते हैं । यह प्रतीति अन्तस्तत्त्वमें ही होती है, शेष सम्पूर्ण जगतमें नहीं होती । अतएव जगतका स्वरूप नैरात्म्य माना है । हे आर्य! जिस प्रकार जगत्का स्वरूप नैरात्म्य है उसी प्रकार आत्माका स्वरूप नैर्जगत्य भी है। क्योंकि वह सम्पूर्ण पर वस्तुओंके ग्रहणसे रहित है । अतएव अपन नैर्जगत्यको अनुभवसिद्ध निश्चय करके-इस बातका दृढ प्रत्यय करके कि मेरी आत्मा इन सम्पूर्ण दृश्यमान पदार्थोपे सर्वथा अलिप्त है, यदि तू मध्यस्थ होजाय-समस्त वस्तुओंमें रागद्वेषरहित हो कर आत्मस्वरूप में स्थिर होजाय तो अवश्य ही तू अपनी आत्माकी शरीरादि कसे भिन्नताका अनुभव करते हुए उसको संसार और शरीर दोनोंसे ही मुक्त कर सकता है।
भावार्थ -यदि तू अपनी आत्माको संमार और शरीरसे सर्वथा भिन्न समझकर निरंता उसका विचार करता रहे तो अवश्य ही एक न एक दिन तेरा आत्मा उनसे रहित होजायगा।
अन्यत्वकी भावनामें रत रहनेवाले के अपुनर्भवकी जो अभिलाषा होती है या रहना चाहिये उसको.प्रकट करते हैं
बाह्याध्यात्मिकपुद्गलात्मकवपुर्युग्मं भृशं मिश्रणा,टेम्नः केट्टककालिकाद्वयमिवाभादाप्यदोऽनन्यवत् । मत्तो लक्षणतान्यदेव हि ततश्चान्योहमर्थादत,स्तद्देदानुभवात्सदा मुदमुपैम्यन्वेमि नो तत्पुनः ॥ ६७ ॥
अध्याय