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अनुधार
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अध्याय
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परभवतक तेरे साथ अवश्य जायगा। किंतु उनका सुख और दुःखरूप फल इस लोककी तरह परलोक में भी तुझे अकेले को ही भोगना पडेगा । उसको भी कोई बांट नहीं सकता। अत एव यह निश्चय मान कि संसारके भीतर नाना योनियों में पर्यटन और पुण्यपापके सुखदुःखरूप फलोंका अनुभव तुझे अकेले को ही करना पडता है उसमें तेरा भागीदार कभी कहीं भी और कोई भी नहीं हो सकता ।
वास्तव में आत्मा के साथ जानेवाला कोई भी नहीं है, इस बातको प्रकट करते हैं: -
यदि सुकृतममाहंकारसंस्कारमङ्गं,
पदमपि न सति प्रेत्य तत् कि पोर्थाः । व्यवहृतितिमिरेणैवार्पितो वा चकास्ति, स्वयमपि मम भेदस्तत्त्वतोरम्येक एव ॥ ६५ ॥
जिसमें कि ममकार और अहंकारका संस्कार दृढ प्रत्यय जन्मसे ही किया गया है ऐसा यह शरीर ही जब कि परलोक के लिये मेरे क्या किसी के भी एक डग भी साथ नहीं जाता है तब स्त्रीपुत्रादिक और घन घा न्यादिक जो कि सर्वथा ही भिन्न दीख रहे हैं; किस तरह साथ जा सकते हैं। अत एव मेरा और इनका भेदनिश्चित है । अथवा मेरा भेद ही स्वयं अपने स्वरूपको दिखा रहा है कि में अन्धकारके समान या नेत्ररोगके समान व्यवहार नय - उपचारसे हूं न कि निश्वय नयसे । निश्चयनयसे तो मैं एक ही हूं मुझमें ज्ञान सुख दुःख आदि पर्यायोंकी अपेक्षा मेद नहीं है। मैं सदा एक चैतन्य रूपमें ही रहनेवाला हूं ।
इस प्रकार एकचा विचार करनेवाले मुमुक्षुके स्वजन या परजन किसी में भी रागद्वेष की उद्भूति नहीं होती, वह निःसङ्ग होकर मोक्षमें प्रवृत्त होता है।
अन्य भावना अतिशयित फलको दिखाकर उसके विषय में प्रलोभन उत्पन्न करते हुए उसका वर्णन
करते हैं:
धम
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