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अनगार
प्रमे
जिस समय यह संसारी जीव प्रशस्त गग या अनुकम्पादिक परिणामोंसे युक्त होता है उस समय मन वचन कायके द्वारा होनेवाले आत्मप्रदेशपरिस्पन्दरूप योगके द्वारा पुण्य कर्मका संचय होता है। सम्यग्दर्शनादिक भावोंसे युक्त आत्माके प्रदेशो में रहनेवाले कर्मस्कन्धों में सातावदनीय शुभ आयु शुभ नाम और शुभ गोत्ररूप पु. ण्यकर्म योग्य पुद्गलद्रव्यका योगके द्वारा अनुप्रवेश होता है। पौगलिक कर्मोंका स्कन्ध और भी पुद्गलोंसे एक क्षेश्रावगाह करके आपस में जकड जाता है । जिस प्रकार सुवर्णकी बेढियोंसे जकडा हुआ कोई राजपुरुष अपने महत्वका ख्याल करके सुखका अभिमान करता हो। किंतु तत्वदर्शी लोग उसपर खेद ही जाहिर करते हैं। उसी प्रकार पुण्यकर्म के उदयसे मै सुखी इस तरह के अम्मिानमें चिरकाल-पल्यातक मूर्छित रहनेवालेपर सिद्धिके साथनमें उद्यत रहनेवाले सत्पुरुष खेद ही किया करते हैं । क्योंकि यह पुण्यकर्म भी जीवको बलात्कार परतन्त्र ही बनाता है।
जिस समय यह जीव राग द्वेष अथवा मोहरूप मेंक्लेश परिणामोंसे युक्त होता है उस समय मिथ्यात्वादिक भावोंसे युक्त आत्माके प्रदेशामें रहनेवाले कमस्कन्धोंमें उक्त योगके द्वारा पापकर्मके योग्य पुद्गलद्रव्योंका अनुप्रवेश होता है। विशिष्ट शक्तिको प्रप्त इस पापकर्मके निमित्तसे सर्वथा पराधीन हुआ यह संसारी जीव मर्मवेधी पीडाओंसे · इ. प्रकार खेद और दीनताको प्राप्त होता है जिस तरहसे कि लोहेकी शृंखलाओंसे बंधा हुआ कोई सापराध व्यक्ति मान्तिः पीडाओम दुःखी हुआ करता है
भावार्थ - पुण्य और पाप दोर भी कर्मोक आस्रव वास्तवमें आत्माकी पराधीनताका ही कारण है और शोचनीय ही है।
... जो मुमुक्षु आस्रव । निसान नहीको कल्याणकी प्राप्ति हो सकती है अन्यथा नहीं । जो आसवका निरोध नहीं करते उनक इमर ५२६१३. पतन ही होता है। ऐसा उपदेश करते हैं:
विश्वालङ्कमिनिल्यद्रङ्गाग्रिमाप्त्युन्मुखः, सद्रत्नो": मधीमे भवाम्भोनिधौ।
अध्याय