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बनमार
यद्विश्रसा रुचिरमर्पितमर्पितं द्राग्,
न्यत्यस्यतोपि मुहुरुद्विजसेऽङ्ग नांगात ॥ ६८॥ हे आत्मन् ! चन्दन गंध आदि रमणीय और पवित्र भी वस्तुएं इस शरीरपर लगाई जाय तो भी ओर | बार बार लगानेपर भी यह शरीर स्वभावसे ही उनको लगाते लगाते ही झटसे विगाड देता है-अपवित्र बना देता
है। फिर भी देखते हैं कि स्वभावसे ही शुद्ध और रमणीय तू इससे उद्विग्न-विरक्त नहीं होता । अतएव मालुम होता है कि तेरा स्वभावसे ही अपवित्र और अमनोज्ञ इस शरीरमें जो कि उस स्थानके समान थोडे ही समयतक ठहरनेके लिये है जहांपर कि पथिक जन रातभर के लिये ही विश्राम किया करते हैं, अपर्व और बडामारी पक्षपात है।
क्योंकि यदि तुझे इसमें पक्षपात न होता तो क्या तू पवित्र होकर और इसकी अपवित्रताका अनुभव करके भी इससे | विरक्त न होता अवश्य होता।
शरीरके ऊपर चामका आच्छादन मात्र लगा हुआ है इसीलिये गृदादिक मांसभक्षी पक्षी उसको चोथ चोथ कर नहीं खाते हैं, अन्यथा वे इसको छोडते भी नहीं। इससे सिद्ध है कि शरीरकी बराबर कोई भी पदार्थ अपवित्र नहीं है। फिर भी शुद्ध स्वरूपके देखने में कुशल या स्थिर आत्माका आधार मात्र होनेसेही वह पवित्र भी हो सकता है । अत एव अशुचि भी शरीरमें समस्त संसारकी विशुद्धिकी कारणताका संपादन करनेके लिये आत्माको उत्साहित करते हैं
निर्मायास्थगयिष्यदङ्गमनया वेधा न भोश्चेत त्वचा, तत व्याद्भिरखण्डयिष्यत खरं दायादवत् खण्डशः । तत्संशुद्धनिजात्मदर्शनविधावग्रसरत्वं नयन, खस्थित्येकपवित्रमेतदखिलौलाक्यतीर्थ कुरु ॥६९ ॥