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अनुगार
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मध्यान
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यह शरीर जो देखने में आता है सो बाह्य और अन्तरङ्ग दो पौगलिक शरीरोंका जोडा है- इसमें रस रक्तादिक धातुमय ओदारके शरीर बाह्य और ज्ञानावरणा दिकर्मस्वरूप कार्मेण शरीर अन्तरङ्ग है जो कि दोनोंही पौगलिक हैं। जिस प्रकार सुवर्णके साथ बाह्य स्थूल मल किड्ड और अन्तरङ्ग सूक्ष्म मल कालिका दोनों ही अत्यंत जुडे रहते हैं उसी प्रकार मेरे साथ ये दोनों शरीर मी अत्यंत जुडे हुए हैं - मेरे साथ मिलकर सर्वथा एकमेकसे होमये हैं इसीलिये मैं और वे दोनों अभिन्न सरीखे जान पडते हैं । किंतु वास्तव में ये मुझसे सर्वथा भिन्न है क्योंकि मेरा और इसका लक्षण या स्वरूप सर्वथा मिश्र २ है । मै अमूर्त और यह मूर्त, मैं ज्ञानदर्शनादि उपयोगरूप चेतन और यह अज्ञानस्वरूप जड़, मैं आनन्दमय और यह निरानन्द, इस प्रकार मुझमें और इसमें महान् अन्तर है। अतएव अत्यंत संयोग की अपेक्षा यह मुझसे अभिन्न सरीखा मालुम होते हुए भी वास्तव में मित्र ही है । ये मुझसे मित्र हैं मैं इनसे भिन्न हूं। इस प्रकार वास्तविक मेदका अनुभव हो जानेसे अब मैं सदा आत्मिक सुखमें ही मग्न रहूंगा, इस शरीरका अनुवर्तन न करूंगा ।
इस प्रकार शरीरादिकसे भिन्नताका विचार करनेवाला साधु उन विषयों में निरीह होकर मोक्षके साधनमें सतत सोत्साह बना रहता है ।
पर यह प्रश्न हो सकता है कि एकत्वानुप्रेक्षा और अन्यत्वानुप्रेक्षामें क्या अन्तर है? किंतु दोनोंका अन्तर स्पष्ट है। एकत्व भावना में तो " मैं अकेला हूं" इस तरह विधिरूपसे चिन्तवन किया जाता है और अन्यत्व भावना "मुझसे भिन्न हैं, मेरे नहीं हैं, " इस तरह निषेधरूप चितवन किया जाता है । अत एव दोनोंमें महान् अन्तर है ।
शरीर की अशुचिता का विचार कराते हुए आत्माको शरीरके विषय में जो पक्षपात लगा हुआ है उसकी निन्दा करते हैं:
कोपि प्रकृत्यशुचिनीह शुचेः प्रकृत्या, भुयान्वसेरकपदे तच पक्षपातः ।
NEESHARAANA
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