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भोजक भी हुआ है। इस प्रकार प्रायः जीवमात्रके साथ में सभी वैमाविक मावोंको पाचुका हूं । हाय अब मुझे उन दुःखमय अवस्थाओंका स्मरण होनेसे पटा कष्ट होता है । पर मैंने अपने आप ही तो अपनेको दुरवस्थाजोंने पटका था।
इस बरहसे विचार करनेवाला मनुष्य संसारके दुःखोंसे उद्विग्न होकर उसको छोडनेकी तरफ प्रवृत्ति करता है।
क्रमप्राप्त एकत्वानुपेक्षाकी विधि बताते हैं।किं प्राच्यः कबिदागादिह सह भवता येन साध्येत सध्यङ, प्रेत्त्येहत्योपि कोपि सज दुरभिमति संपदीवापदि स्वान् । सधीचो जीव जीवन्ननुभवसि परं त्वोपर्नु सहेति,
श्रेयोहश्चापकतुं मजसि तत इतस्तत्फलं त्वेककस्त्वम् ॥ ६४ ॥ हे आत्मन् ! क्या पूर्वभवका पुत्र मित्र या बहिन भाई आदिमें से कोई भी इस भवमें तेरे साथ आया है। जिसको कि देख करके यह अनुमान किया जा सके कि इस भवका भी कोई परमवतक तेरे साथ जा सकेगा । जब कि ऐसा नहीं है-दृष्टांत केलिये भी परभवसे साथमें आया हुआ कोई बन्धु बान्धव नहीं मिलता तो यह किस तरह माना जा सकता है कि इस भवके दृष्ट जनोंमेंसे भी कोई तेरे या किसीके भी साथ जा सकेगा? अत एव इनके विषयमै तुझको जो मिथ्याज्ञान बैठा हुआ है कि ये मेरे हैं सो उस दुरभिनिवे
को छोडदे । हे जीव ! क्या तेने बीते हुए कभी इस बातका अनुभव किया है कि जिनको तू अपने समझता है वे तेरी सम्पत्तिकी तरह विपत्तिमें भी कमी सहायक हुए है ? नहीं । क्योंकि जब तेरे जीते जी यह हाल है कि संपत्ति के रहते हुए तो ये सब तेरा साथ देते हैं पर विपत्तिको देखकर दूर ही भागजाते हैं। तब मरनेपर साथ देनेकी तो बात ही कहाँ । हे वात्मन् ! यह निश्चय समझ कि इनमेंसे तेरे साथ जानेवाला कोई भी नहीं है। हां, पुण्य और पाप जिनका कि तेने ही संचय किया है उनमेंसे तेरा उपकार करनेकेलिये पुण्य और अपकार करनेकेलिये पाप
का कोई साथ जा
में भी कमी मात ए कमी का मिथ्याज्ञान दृष्ट जनों