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अनगार
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जाता है वे सब पुद्गलकी ही अवस्थाएं हैं। तत्त्वदृष्टि से यदि देखा जाय तो शरीरादिक मुझसे और मैं शरीरादिकसे सर्वथा भिन्न हूं। में इनका कोई नहीं और ये मेरे कोई नहीं।
इस प्रकारसे जो नित्य ही अशरणताका विचार करता रहता है उस विरक्तबुद्धिके किसी भी सांसारिक पदार्थमें ममत्वबुद्धि उत्पन्न नहीं होती किंतु आत्मप्रत्यय या स्वावलम्बनका भाव दृढ होता है और सर्वज्ञके मार्गमें प्रीति उत्पन्न होती है।
संसारानुप्रेक्षका वर्णन करते हैं: -- तच्चेद् दुःखं सुखं वा स्मरासि न बहुशो यन्निगोदाहमिन्द्रप्रादुर्भावान्तनीचोन्नतविविधपदेष्वा भवाद्भक्तमात्मन् । तत्किं ते शाक्यवाक्यं हतक परिणतं येन नानन्तराति,
झान्ते भुक्तं क्षणेपि स्फुरति तदिह वा क्वास्ति मोहः सगर्हः ॥ ६२ ॥ हे आत्मन् ! अनादि कालसे लेकर अबतक अनंत वार तेने जो निगोदसे लेकर अहमिन्द्रतककी नीच और ऊंच नाना प्रकारकी पर्यायों में सुख या दुःख जो कुछ भोगा है उसका तुझे स्मरण क्यों नहीं होता ? जिस प्रकार नीच स्थानों में तू निगोदतक पहुंचा और वहां तेने दुःखोंका अनुभव किया उसी प्रकार ऊंच स्थानों में भी अनेक बार तेने अहमिन्द्रतककी पर्यायोंको धारण किया और वहांपर सांसारिक सुखोंका भी अनुभव किया । पर तझे न तो उन नीच स्थानोंके भोगे हुए दुःखोंका ही स्मरण होता है और न उन ऊंच स्थानोंके सुखोंका ही। इसका क्या कारण है ? हे दुरात्मन् ! क्या निरन्वय क्षणिक वादरूप बौद्ध सिद्धान्तके वचन तेरें एकतानताको प्राप्त हो गये हैं ? क्या क्षाणिक सिद्धान्तके अनुसार पूर्व पर्याय सर्वथा नष्ट होकर अब सर्वथा नया पदार्थ ही उत्पन्न
अध्याय
१-समभवमहमिन्द्रोऽनन्तशोऽनन्तवारान्, पुनरपि च निगोतोऽनंतशोऽन्तनिवृत्तः ।
किमिह फलममुक्तं तद्यदचापि मोक्ष्ये, सकलफलविपत्तेः कारणं देव देयाः ॥