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अनगार
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अध्याय
पुत्रादिकों के प्राणोंका संहार कर ही डालता है; पर वे कुछ नहीं कर सकते, देखते ही रहजाते हैं। अपनी प्रियतमा वधुओं के मरणसे उत्पन्न हुए चिरकालीन - सागरोंतक के दुःख से क्या ये इन्द्रादिक दुःखी नहीं होते १ होते ही हैं। क्योंकि देवाङ्गनाओंकी आयु पल्योपम और इन्द्रोंकी आयु सागरोपम हुआ करती है अत एव जिस प्रकार सागर - समुद्र में अनेक लहरें उत्पन्न होकर विलीन होजाती हैं उसी प्रकार एक इन्द्रकी आयुमें अनेक देवियां उत्पन्न हो हो कर आयु पूर्ण करजाती हैं। उन सबके वियोगका दुःख इन्द्रोंको आयुःपर्यंत भोगना पडता है। इसीलिये तो कहते हैं कि यह यमराज भला किसको दुःखकर अभिनय नहीं दिखाता ?
कदाचित् कोई समझेगा कि चक्रवर्ती या इन्द्र यदि यमराजका मुकाबिला नहीं कर सकते तो न सही; पर उत्कृष्ट तपस्या से उत्पन्न हुए पराक्रमके धारक योगेश्वर उसका प्रतीकार अवश्य कर सकते होंगे। सो ऐसा भी नहीं है। हमें यह बडे दुःख के साथ कहना पडता है कि भुजंग अथवा सिंहके समान कालकी भयंकर डाढका प्रतिरोध अतिशयित और जगद्विख्यात तपोविक्रमकी शक्तिको धारण करनेवाले ऋषिगण भी नहीं कर सकते । उन्हे भी कालकवलित होना ही पडता है । अत एव हे तत्वज्ञान में प्रषण महार्षयो । तुम ऐसा विचार करो कि इन बाह्य पदार्थ शरीरादिकोंमें जरा मरण या व्याधि आदि कुछ भी होता रहो, इससे मेरा क्या नुकसान ? कुछ नहीं । जैसा कि कहा भी है कि:
न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा नाहं बालो न वृद्धोहं न युवैतानि पुद्गले ॥ जीबोन्य: पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः । यदन्यदुच्यते किंचित् सोस्तु तस्यैव विस्तरः || मत्तः कायादयो भिन्नास्तेभ्योऽहमपि तत्त्वतः । नाहमेषां किमप्यस्मि ममाप्येते न किंचन ।
आधि व्याधि मृत्यु और भय तथा बाल वृद्ध और युवा आदि अवस्थाएं मेरी आत्मामें नहीं, पुद्गलमें होती हैं। जीव दूसरा पदार्थ है और पुद्गल दूसरा पदार्थ है। जिन जिन इन भिन्न वस्तुओंका निरूपण किया
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