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अनगार
६.६
इस मकार तपोधर्मका निरूपण करके क्रमप्राप्त त्यागधर्मका वर्णन करते हैं:--
शक्त्या दोषैकमूलत्वानिवृत्तिरुपधेः सदा ।
त्यागो ज्ञानादिवानं वा सेव्यः सर्वगुणाग्रणीः ॥५२॥ सम्पूर्ण परिग्रह रागादिक दोषोंके उत्पन्न करनेमे प्रधान कारण हैं । अत एव साधुओंको शक्तिके अनुसार उनका त्याग ही करना चाहिये । इसीको दान कहते हैं । अथवा ज्ञानादिके देनेको भी दान कहते हैं। अत एव मनियोंको इसका भी निरंतर अभ्यास करना चाहिये । क्योंकि यह दान धर्म सम्पूर्ण गुणोंमें प्रधान माना गया है।
यहांपर यह प्रश्न हो सकता है कि दान और उत्सर्ग तथा शाँच इन तीनों में क्या अन्तर है ? क्योंकि तीनों जगह पर परिग्रहके छोडनेका ही उपदेश दिया जाता है।
उचर--त्याग और उत्सर्ग में अनियत काल और नियतकालका अन्तर है। क्योंकि अपनी शक्तिके अनुसार अनियत काल के लिये परिग्रह के छोडनेको त्याग और नियत काल केलिये सम्पूर्ण परिग्रहोंके छोडनेको उत्सर्ग अथवा कायोत्सर्ग कहते हैं। इसी प्रकार शौच और दानमें असनिहित और सनिहित विषयोंके छोडनेकी अपेक्षासे भेद है। असभिहित विषयों में भी जो कर्मके उदयसे गृद्धि हुआ करती है शौचधर्ममें उसका भी परित्याग किया जाता है। किंतु दानधर्ममें सन्निहित-निकटवर्ती ही विषय छोडे जाते हैं। यह परस्पस्में भेद समझना चाहिये। दूसरे सम्पूर्ण दानोंके माहात्म्यकी अपेक्षा ज्ञानदानका माहात्म्य अधिक है इस बातको प्रकट करते हैं:
दत्ताच्छम किलैति भिक्षुरभयादा तद्भवाद्भेषजा,. दा रोगान्तरसंभवादशनतश्वोत्कर्षतस्तदिनम् ।
अध्याय
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