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धर्म
अनगार
पूर्वकृत दोषोंके निराकरणको प्रतिक्रमण कहते हैं । जिस प्रकार गुप्ति समिति और व्रतोंका पालन करनेकेलिये प्रतिक्रमणका पृथक् उल्लेख किया गया है उपी प्रकार उनका पालन और रक्षण आदि करनेके लिये क्षमादिकोसे पृथक् वर्णन किया गया है । जो साधु ख्याति लाभ पूजा आदि ऐहिक-दृष्ट फलकी अपेक्षा न रखकर इन उ. त्तम क्षमा आदि दश धर्मों के द्वारा सदा शुद्धोपयोगमें प्रयत्नशील बना रहता है वह सर्वोत्कृष्ट पदको प्राप्त करलेता है।
इस प्रकार दश धर्मोका निरूपण करके, इस अध्यायकी आदिमें तपरूपी समुद्र के तीर्थरूपमें जिनका निदेश किया है उन अनुप्रेक्षाओंका वर्णन क्रमप्ताप्त है । जिन मुमुक्षुओंका चित्त निरंतर इन अनुप्रेक्षाओंके चिन्तवनमें लगा रहता है उनको मोक्षमागेके अनेक विघ्नोंसे युक्त रहते हुए भी किसी भी प्रकारका प्रत्यवाय-अपराध नहीं लग सकता। अत एव उनका निरंतर चिन्तवन करते रहनेकेलिये साधुओं को प्रेरणा करते हैं।
बहुविनेपि शिवाध्वान यन्निनधियश्चरन्त्यमन्दमुदः ।
ताः प्रयतैः संचिन्या नित्यमनित्याद्यनुप्रेक्षाः॥ ५७ ॥ जिन अनुप्रेक्षाओंसे अपनी मतिको निरत रखनेवाले साधु जन मोक्षमार्ग में अनेक विनोंके उपस्थित होते हुए भी आनन्दके उद्रेकको प्राप्त होकर यथेच्छ विहार करते रहते हैं उन अनित्यादिक बारहो अनुप्रेक्षाओंका मुमुक्षुओंको प्रयत्नशील होकर शरीरादिकके विषय में नित्य ही चिन्तवन करते रहना चाहिये।
आयु काय इन्द्रिय बल यौवन आदिमें क्षणभंगुरताका विचार करनेसे जो मोहका उपमर्दन होता है उसको दिखाते हैं:
चुलुकजलवदायुः सिन्धुवेलावदऊँ. करणबलममित्रप्रेमवद्यौवनं च।
अध्याय
१-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संघर, निर्जरा, लोक, बोषिदुर्लभ, धर्मस्वाख्यातत्व ।