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अनगार
स्फुटकुसुमवदेतत् प्रक्षयकव्रतस्थं,
क्वचिदपि विमृशन्तः किं नु मुह्यान्त सन्तः ॥ ५८ ॥ ___ क्या वे सत्पुरुष कभी भी आयु आदि के विषय में मोहको प्राप्त हो सकते हैं ? कभी नहीं । जो कि आयु. आदिके स्वरूपका निरंतर इस प्रकारसे विचार करते रहते हैं कि यह आयु-भवको धारण करनेकेलिये कारणभूत कमविशेष अंजलीके जलके समान क्षणभंगुर है। जिस प्रकार अंजलीमें भरा हुआ जल छिद्रोंमें होकर टपक टपक कर शीघ्र ही समाप्त होजाता है उसी प्रकार आयुःकर्म भी प्रतिक्षण उदयमे आ आकर सहसा समाप्त होजाता है । यह शरीर लवण समुद्रकी वेलाके समान अनित्य है । जिस प्रकार समुद्रके जलका उच्छास सदा एकसा नहीं रहता, जहांतक उसे बढना चाहिये वहांतक बराबर बढता जाता है और फिर जहांतक उसे घटना चाहिये वहातक बराबर घटता जाता है। इसी प्रकार यह शरीर भी अपने प्रमाणतक बराबर धातु उपधातुओंके द्वारा बढता जाता है और उसके बाद क्रमसे घटकर क्षीण हो जाता है । इन्द्रियोंका सामर्थ्य-विषयग्रहण करनेकी शाक्ते शत्रुओंके प्रेमके समान है क्योंकि उचित उपचार होनेपर भी ये व्यभिचार ही प्रकट करती हैं । जिस प्रकार योग्य आसनादि देकर अनुकूलताकी तरफ उन्मुख किया हुआ भी शत्रु प्रेम विघटित हानेमें समयकी अपक्षा नहीं रखता उसी प्रकार इन्द्रियां भी पथ्य आहार विहारके द्वारा सुपुष्ट की जानेपर भी अपनी सामर्थ्य के छोडने बुद्धि के अाराधको ढूंढा करती हैं। यह यौवन खिले हुए फूल के समान शीघ्र ही विकारको प्राप्त होजानेवाला है। जिस प्रकार फूल खिलते ही कुछ क्षणकेलिये अपनी मनोहरता दिखाकर क्षणमात्रमें ही कुमला जाता है उसी प्रकार यह यौवन भी कुछ क्षणों के लिये चमत्कार दिखाकर मुरझा जाता या विकारको प्राप्त होजाता है । इस प्रकार ये आयु शररि इन्द्रिय और यौवन सभी क्षणभगुर हैं। इन्होंने सर्वथा नष्ट होने का उत्कृष्ट व्रत ले रक्खा है। अत एव इनका निमूल प्रलय अवश्यम्भावी है।
भावार्थ-आयु आदि अन्तरङ्ग पदार्थों की क्षणभङ्गताका निरंतर चिन्तयन करनेवाला मुमुक्षु उनमें कभी भी मोहित नहीं हो सकता-उन विषयों में कभी भी उसके ममच्चबुद्धि उत्पन्न नहीं हो सकती, और न उनके
अध्याय