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मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले ये शरीरादिक भी मेरे नहीं हैं ऐसे आकिंचन्य धर्मरूप और अपूर्व-जिनका कि पहले कभी भी अनुभव नहीं किया है, आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके उपायमें विहार करनेवाला साधु उस आनन्द रससे पूर्ण एक टोत्कीर्ण ज्ञायक भावस्वभाव आत्मज्योतिका अनुभव करता है जो कि पहले कभी भी अनुभवमें नहीं आसकी है।
___ भावार्थ- आत्मासे सर्वथा असम्बद्ध परिग्रहोंकी तो बात ही क्या, सम्बद्ध शरीरादिक परिग्रहमें भी संस्कारादिको छोडकर " ये मेरे हैं" इस तरहके मृ रूप परिणामोंका त्याग करना इसको आकिंचन्य धर्म कहते हैं।
ब्रह्मचर्य धर्मका स्वरूप बताते हैं:चरणं ब्रह्मणि गुरावस्वातन्त्र्येण यन्मुदा । चरणं ब्रह्मणि परे तत्त्वातन्त्र्येण वर्णिनः ॥ ५५ ॥
अध्याय
___मैथुन कर्मसे सर्वथा निवृत्त वर्णीकी आत्मतत्वके उपदेष्टा गुरुओंकी प्रीतिपूर्वक अधीनता स्वीकार कर की गई प्रवृत्तिको अथवा ज्ञान और आत्माके विषय में स्वतंत्रतया की गई प्रवृत्तिको ब्रह्मचर्य कहते हैं । भावार्थजो चतुर्थ व्रतको स्वीकार करनेवाला साधु व्यवहारसे अध्यात्मगुरुओंकी और परमार्थसे अपनी आत्माकी ही अधीनता स्वीकार करके प्रीतिपूर्वक व्यवहार करता है वही उत्कृष्ट और स्वच्छन्द ज्ञानका अनुभव करता है ।
इस प्रकार दश धोका वर्णन करके अंतमें इन सभीके साथ उत्तम विशेषण लगानेकी आवश्यकता और गुप्ति आदिसे इनका पृथक् वर्णन करनेका कारण बताते हैं:
गुप्त्यादिपालनार्थं तत ९वापोद्धृतैः प्रतिक्रमवत् । दृष्टफलनियंपेक्षैः क्षान्त्यादिभिरुत्तमैर्यतिर्जयति ॥ ५६ ॥