________________
जनगार
सर्वे तातादिसंबन्धा नासन् यस्याङ्गिनोङ्गिमिः।
सवैरनेकधा सार्द्ध नासावऽङ्ग थपि विद्यते ॥ अतएव मुझसे सर्वथा भिन्न शरीरका यदि ये भक्षण करते हैं तो भले ही कगे। मेरी इससे क्या हानि लाभ है। क्योंकि स्वसंवेदनके द्वारा जिसका प्रत्यक्ष हो सकता है ऐसे टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकमावस्वभाव आत्माका तो ये कुछ भक्षण कर ही नहीं रहे हैं। शरीरके निमित्तसे यह केवल व्यवहार है कि मेरा भक्षण कर रहे हैं। वास्तवमें तो जो आत्मस्वरूपकी तरफ लीन हो रहा है उसका बाह्य दुःखोंकी तरफ लक्ष्य भी नहीं जाता । और न उनसे उसको किसी प्रकारके दुःखका अनुभव ही होता है । जैसा कि कहा भी है:
आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबहिःस्थितेः। जायते परमानन्दः कश्चिद्योगेन योगिनः ।। आनन्दो निर्वहत्युचं कर्मेन्धनमनारतम् । नचासौं विद्यते योगी बहिःखेष्वचेतनः ।। आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताल्हादनिर्वृतः ।
तपसा दुष्कृतं घोरं भुजानोपि न खिद्यते ।। संयमका वर्णन करके तपोरूप धर्मका व्याख्यान करते हैं । यह धर्म उपेक्षासंयमकी सिद्धिका कारण है। अत एव जो साधु उसका पालन करते हैं उनको वैसा करनेकेलिये अधिक उत्साहित करते हैं:
उपेक्षासंयमं मोक्षलक्ष्मीश्लेषविचक्षणम् ।
लभन्ते यमिनो येन तच्चरन्तु परं तपः॥ ५१॥ संयमियोंको स्वाध्याय और ध्यानस्वरूप उत्कृष्ट तपका अनुष्ठान अवश्य ही करना चाहिये । क्योंकि केवलज्ञानादि अनन्त चतुष्यरूप मोक्षलक्ष्मीका आलिङ्गन करानेमें चतुर दतके समान इस उपेक्षासंयमकी प्राप्ति इस तपके प्रसादसे ही हो सकती है। .
अध्याय