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अनगार
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-अध्याय
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योगक्षेमयुतेन तेन सकलश्रीभूयमीषल्लभम् ॥ ३४ ॥
कषायोंके जिप प्रकार शक्तिभेदकी अपेक्षा चार भेद माने हैं उसी प्रकार उनका वासनाकाल और कार्य भी भिन्न भिन्न ही होता है । अनन्तानुबन्धीका संस्कार संख्यात असंख्यात और अनंत भवतक रह सकता है और उसके उदय से सम्यग्दर्शन का घात होता है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरणका संस्कार छह महीनेतक रह सकता है और वह देश को रोकता है। उसके उदयसे एकदेश चरित्र भी नहीं हो सकता । प्रत्याख्यानावरणका संस्कार पंद्रह दिन तक रह सकता है और वह सकल चारित्रको नहीं होनेदेता । तथा संज्वलनका संस्कार अन्तर्मुहूर्तकुछ कम दो घडीतक रह सकता है जो कि यथाख्यात चारित्रको रोकनेवाला है। इस प्रकार कषायोंका संस्कार कार्य भिन्न भिन्न ही है । इनके अनुगामी हास्य रति अर ते शोक भय जुगुप्सा स्त्री पुरुष और नपुंसक ये नव नोक
और भी हैं। इनको उक्त क्रोधादि कषायरूप शत्रुओं का सैन्य समझना चाहिये । अतएव जिस प्रकार कोई विजिगीषु व्यक्ति उत्कृष्ट मध्यम आदि प्रतापके रखनेवाले एवं उत्कृष्ट मध्यम आदि वैरभाव के भी रखनेवाले चारो तर फके ससैन्य शत्रुओंको तीक्ष्ण शस्त्रोंके द्वारा जीतकर अपने योगक्षेम - अलब्धलाभ और लब्धपरिरक्षणके द्वारा सकल साम्राज्य - षट्खण्ड भूमिके आधिपत्यको सहज ही में प्राप्त करलेता है उसी प्रकार जो मुमुक्षु भव्य उक्त चार प्रकारकी वासनाओं युक्त और सम्यग्दर्शनादिकका घात कर आत्माका अपाय करनेवाले तथा हास्यादिकी सेनासे युक्त अनन्तानुबंधी क्रोधादि चार प्रकार के शत्रुओंको निर्मल - ख्याति लाभ पूजा आदिकी अपेक्षासे रहित होने के कारण प्रशस्त - - उत्तमक्षमादि शस्त्रों के द्वारा परास्त कर देता है वही साधु क्षपकश्रेणिगत समाधिके द्वारा -- एकत्ववितर्क वीचार शुक्लध्यान में स्थिर होकर सकल- सशरीर लक्ष्मी - अन्तरङ्ग केवलज्ञानादि अनन्त चतुष्टस्वरूप और बाह्य समवसरणरूप विभूतिको अनायास ही प्राप्त करलेता है ।
भावार्थ - जो व्यक्ति उत्तम क्षमादिकों के द्वारा कषायोंका निरोध करदेता है वह विना किसी परिश्रमके ही शुक्लध्यान में स्थिर होकर शीघ्र ही अर्हन्त अवस्थाको प्राप्त करलेता है ।
क्रमप्राप्त सत्यधर्म के लक्षण और उपलक्षणको बताते हुए उसका फल भी बताते हैं: -
धर्म ०
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