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| धर्म
अनगार
स्वं व्याव| ततः सतां नमसितः स्यात् तानुपायेन तु,
स्वान्मार्जन् मृदुना प्रियः प्रतिलिखन्नप्यादृतस्तादृशा ॥ ४८ ॥ ज्ञान और चारित्रकी क्रियाओंको अपने अधीन रखनेवाला और उनके बाह्य साधन प्रासुक वसतिका तथा अन पुस्तकादि मात्रको ही ग्रहण करनेवाला जो संयमी उन प्रासुरू भी वसतिका आदिमें देवात् आकर पड जानेवाले जीवजन्तुओं के वियोग या उपघात आदिका विचार न करके स्वयं अपनेको ही उनसे अलग रख कर उन जीवों की रक्षा करता है वही उत्तम प्राणिपरिहाररूप अपहृत संयमका पालक समझा जाता है। ऐसे संयमीकी साधुजन भी पूजा करते हैं । किंतु जो साधु इस तरह अपने को ही उन जीवोंपे पृथक् न रखकर अपने शरीरादिके ऊपर आकर पडजानेवाले उन जीवोंका उक्त पाच गुणों से युक्त कोमल पीछी आदिके द्वारा मार्जन कर के उनकी रक्षा करता है वह मध्यम प्राणिपरिहाररूप अपहृत संयमका पालन करनेवाला मानागया है और उस को सत्पुरुष बडी प्रेमकी दृष्टिसे देखते हैं । तथा जो यति उस तरहकी पीछी न मिलनेपर उसके समान किस.. भी दूसरी कोमल वस्तुसे उन जीवोंका शोधन करता है वह जघन्य प्राणिपरिहाररूप अपहृत संयमका पालन करनेवाला मानागया है और वह भी सत्पुरुषोंकेलिये आदरणीय होता है।
अपहृत संयमको बढानेकेलिए आठ प्रकारकी शुद्धिका उपदेश देते हैं:
भिक्षेर्याशयनासनविनयव्युत्सर्गवाङ्मनस्तनुषु ।
तन्वन्नष्टसु शुद्धिं यतिरपहृतसंयमं प्रथयेत् ॥ ४९ ॥ मिक्षा ईर्या शयनासन विनय व्युत्सर्ग और मन वचन काय इन आठ विषयों में संयमियोंको निरवद्यता बढाते हुए अपहृत संयमको बढाने का प्रयत्न करना चाहिये । क्योंकि इन शुद्धियों के निमित्तसे ही संयमकी वृद्धि हो सकती है।
भिक्षाशुद्धिका वर्णन पिण्डशुद्धिके प्रकरण में करचुके हैं। फिर भी यहांपर इतना विशेष समझलेना चाहि
अध्याय