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अनगार
यह सम्पूर्ण चराचर जगत् वस्तुतः उपेक्षणीय ही है, इसमें न तो कोई वास्तवमें रागका ही विषय है और न द्वेषका ही फिर भी इसमें जो इष्टानिष्ट वामनाकी प्रवृत्ति होती है सो केवल मोह-अज्ञानका ही कार्य है । अत एव संयुमके अभिलाषियोंको चाहिये कि वे उसका दूर करनेकेलिये उस पदको, जिसमें कि इष्टानिष्टतया पुनः पुनः विषयोंका सेवन किया जाता है; छोडकर उस पदका आश्रय लें जहाँपर कि सम्पूर्ण विषय इष्टानिष्ट वासनासे सर्वथा अलिप्त हैं। मनको विक्षिप्त करदेनेवाले इन्द्रियविषयोंके दूर करनेमें कुशल गुरु आदिकोंका अभिनन्दन करते हैं:
चित्तविक्षेपिणोक्षार्थान् विक्षिपन् द्रव्यभावतः ।
विश्वाराट् सोयमित्यायैर्बहु मन्येत शिष्टराट् ॥ ४७ ॥ रागद्वेषादिको उद्भूत कर मनमें क्षोभ उत्पन्न करदेनेवाले द्रव्य और भावरूप-बाह्य और अन्तरङ्ग इन्द्रियोंके विषयोंका अच्छी तरह परित्याग करानेमें कुशल शिष्टराद्का उत्तम पुरुष 'यह जगन्नाथ है-सम्पूर्ण जगतके अधीशकी तरह शोभायमान होनेवाला है' यह कहकर अत्यंत सम्मान करते हैं ।
भावार्थ-तत्त्वार्थोंका श्रवण या ग्रहण आदि करके जिन्होंने अनेक गुणोंका सम्पादन किया है ऐसे शिष्ट पुरुषोंमें जो उनके अधीशकी तरह शोभायमान होता है उसको शिष्टराट् कहते हैं । ऐसे पुरुषके प्रसादसे ही मनको क्षुब्ध बनानेवाले समस्त विषय दूर किये जा सकते हैं। अत एवं आर्य. पुरुषों के द्वारा वह संसारके स्वामीके समान अतिशय सम्मानित होता है। . इंद्रियसंयमकी तरह प्राणिपरिहाररूप अपहृत संयम भी उत्तम मध्यम और जघन्य इस तरह तीन प्रकार का बताया है। इनका विस्तृत रूपसे वर्णन करते हैं -
बाह्यं साधनमाश्रितो व्यसुवसत्यन्नादिमानं स्वसाद - भूतज्ञानमुखस्तदभ्युपसृतान् जन्तून्यतिः पालयन्
अध्याय