________________
अनगार
६०२
ये कि मुनियों की मिक्षा गोचार अक्षम्रा उदराग्निशमन भ्रामरी और श्वभरण इस तरह पांच प्रकारका मानी है। गौके समान भक्षण करने को गोचार कहते हैं। जिस प्रकार गौ अपने प्रयोक्ताके सौन्दर्य आदिकी तरफ निरीक्षण न करके और उचित स्वाद वगैरहकी भी अपेक्षा न करके जैसा कुछ प्राप्त होजाता है उसीको निर्विशेपरूपसे ग्रहण किया करती है, उसी प्रकार जो साधु दाताके गुणों की परीक्षामें न लगकर और न आहारके स्वाद अथवा उचित संयोजना आदिकी ही अपेक्षा करके यथाप्राप्त भोजनको प्राग करता है उसकी इस मिक्षाको गोचार कहते हैं। गाढीका पहिया जिस काष्ठपर ठहरा रहता है उसको किसी न किसी स्नेह-तैल आदि से ओंगना पडता है। क्योंकि उसके ओंगे विना बाझेपे भरी हुई गाढी अभीष्ट स्थानतक पहुंच नहीं सकती। उसी प्रकार आयुष्यादिको स्थिर रखने केलिये और रत्नत्रयरूप गुगोंके भारसे पूर्ण शरीररूपी गाढीको अभीष्ट स्थान तक पहुंचाने के लिये जो यथाविधि किसी भी निर्दोष आहारका ग्रहण करना उसको अक्षम्रक्षण कहते है। जिस प्रकार खजानेमें आग लगजानेपर किसी भी जलो उसको बुझाया जाता है। उसमें यह जल पवित्र है और यह अपवित्र है ऐसा विचार नहीं किया जाता । इसी प्रकार उदराग्नि के प्रज्वलित होनेपर उसको शान्त करनेकेलिये जो यह सरस है या यह विरस है ऐसा विचार न करके आहार ग्रहण किया जाय उसको उदराग्निप्रशमन कहते हैं । जिस प्रकार भ्रमर पुष्पको किसी भी प्रकार की पीडा न देकर उससे आहार ग्रहण करता है उसी प्रकार जो मुनि दाताको किसी भी तरहसे बाधित न करके उससे आहार्य सामग्रीको ग्रहण करता है, उसकी भिक्षाको भ्रामरी कहते हैं। जिस प्रकार कचरा वगैरहका ख्याल न करके जिस किसी भी तरह गढेको भरदिया जाता है उसी प्रकार यह स्वादु है या यह अस्वादु है ऐसा विचार न करके यथाप्राप्त भोजनके द्वारा जो उदररूपी गरेका भरदेना उसको श्वभ्रपूरण कहते हैं।
यो व्युत्सर्ग और वचन इन तीन प्रकारकी शुद्धियों का वर्णन समितियोंके प्रकरणमें आचुका है, और शयनासन तथा विनय शुद्धिका वर्णन आगे चलकर तपके प्रकरण में करेंगे। अत एव यहाँपर इनके दुहरानेकी आवश्यकता नहीं है। रही मनःशुद्धि सो उसका स्वरूप इस प्रकार है कि कर्मोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाली और रागादिके उद्रेकसे रहित तथा जिसमें मोक्षमार्गकी रुचिके द्वारा अतिशय निर्मलता प्राप्त हो चुकी है ऐसी
'अध्याय