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अनमार
लुम होती है कि मनने इन्द्रियों के द्वारा संसारमें उस प्रभुशक्तिको सर्वत्र रोप रक्खा है कि जिसकी सामर्थ्य का कोई भी प्रतिविधान-प्रतोकार नहीं हो सकता । अत एव जगत्में अपनी प्रभुताको कायम करनेवाले और बडे बेगके साथ विश्वभरमें दौड लगानेवाले इस मनका मुमुक्षुओंको निरोध करना ही उचित है।
___इन्द्रियों का स्वामी मन है । यदि वह वशमें न हो तो इन्द्रियों को वह अपने विषयमें प्रवृत्त करता है। और यदि वशमें करलियाजाय तो इन्द्रियां मी स्वयं अपने विषयोंसे निवृत्त होजाती हैं । अत एव जितेन्द्रिय बननेके. लिये-यदि इन्द्रियाको अपने वशमें करना हो तो मनको जीतनेका प्रयत्न करना चाहिये । जैसा कि कहा भी
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इन्द्रियाणां प्रवृत्ती च निवृत्तौ च मनः प्रभुः।
मन एव जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः ॥ अत एव ग्रन्थकार इन्द्रियसंयमकी सिद्धिकेलिये मनको संयत करनेका मुमुक्षुओंको उपदेश देते है।--
चिग्दृग्धी दुपेक्षितास्मि तदहो चित्तेह हृत्पङ्कजे, स्फूर्जत्त्वं किमुपेक्षणीय इह मेऽभक्षिणं बहिर्वस्तुनि । इष्टद्विष्टधियं विधाय करणद्वारैरभिस्फारयन्, मां कुर्याः सुखदुःखदुर्मति मयं दुष्टै दूष्येत किम् ॥ ४॥
अध्याय
१-उक्त पांचों इन्द्रियोंके कथनमें क्रमसे हस्तिनीस्पर्श दोव, जालके द्वारा डाली गई गोलीके रसास्वादनमें लम्पट अपने पति--मत्स्यके मरणका दुःख, गन्धके लोभी भ्रमरका कमलके कोशमें मरण, और रूपके देखनेमें उत्सुक पतनकी मृत्यु, एवं गीतध्वनिमें अनुरक्त मृगका वध व्यग्य हैं। जो बात स्पष्ट न कहकर अभिप्रायसे जाहिर की जाय उसको व्यंग्य कहते हैं । स्पर्शन रसन ब्राण चक्षु और श्रोत्र इन इन्द्रियोंने भी अपना कार्य स्पष्ट नहीं बताया है किन्तु जिनको उनके कार्यसे प्रचण्ड क्लेश उत्पन्न हुआ है उनका उल्लेख कर अभिप्रायसे वह जाहिर किया है।
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