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अनगार
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अध्याय
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मैं प्रमाणकी अपेक्षा स्वरूप आर पररूपका संवेदयिता-स्वपरप्रकाशक, और शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा स्वरूपमात्रका अनुभविता स्वात्मोपलब्धिरूप, तथा अन्य विषयोंकी तरफ उन्मुख न हो कर परस्वरूपका भी ध्यान करनेवाला हूं । अत एव निश्चय नक्की अपेक्षा से मैं सम्पूर्ण अन्तरङ्ग ओर बाह्य विकल्पजालोंके विलीन होजाने से आत्मामें विश्रान्ति लाभ कर अत्यंत आलादको प्राप्त हूं - शुद्ध स्वात्माके अनुभवरूप अत्यंत सुखस्वभाव में परि णत हूं । और स्वरूप या पररूप किसीने भी रागी द्वेषी न होकर उपेक्षा स्वभाव --- परम उदासीन ज्ञानमय अत एव हे मन ! इस हृदयकमल - ततत् विषयोंके ग्रहग से व्याकुल हुआ तू क्या इन बाह्य वस्तुओं के विषय में जो कि सदा इन्द्रियगोचर और वस्तुतः उपेक्षणीय हैं जिनमें कि रागद्वेष को नै करके मध्यस्थभाव ही धारण करना चाहिये, मुझको इष्टानिष्टबुद्धि उत्पन्न कर इन इन्द्रियों के द्वारा उनके विषयोपभोगकी तरफ उन्मुख बनाता हुआ मुझे सुख अथवा दुःखके मिथ्याज्ञानरूप परिणत कर सकता है ? कमी नहीं । अथवा ऐसा भी हो सकता है; क्योंकि जो स्वयं दुष्ट-दोषयुक्त - विकृत हुआ करते हैं वे दूसरी शुद्ध अधिकृत वस्तुको भी दोषयुक्त बनादिया करते हैं ।
भावार्थ - हे मन ! पापकर्म के निमित्तसे द्रव्यमन में विलास करनेवाला तू जो सकल विकल्पोंसे शून्य भी चेतनको नाना विकल्पजालोंसे जटिल बना देता है सो तेरा यह कार्य अन्याय्य है। मैं इसकी निन्दा करता हूं । उत्कृष्ट कुलीनता के अभिमानका स्मरण कराते हुए अन्तरात्माको उपालम्भात शिक्षा देते हैं:--
पुत्रो यद्यन्तरात्मन्नसि खलु परमब्रह्मणस्तत्किमक्षै, लल्याद्यद्बलतान्ताद्रसमलिभिरसृग्रक्तपाभिर्व्रणाद्वा ।
पायं पायं यथास्वं विषयमघमयैरेभिरुद्वीर्यमाणं, भुञ्जानो व्यात्तरागारतिमुखमिमकं हंस्यमा स्वं सवित्रा ॥ ४१ ॥ अन्तरात्मन् ! मनके दोष और आत्मस्वरूपके विचार करनेमें चतुर चिद्विवर्त ! यदि तू परमब्रह्म --
धर्म०
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