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NITVOINMANMOHamalai
सत्य शब्दका अर्थ ऊपर बताया जा चुका है कि सतके विषयमें जो उपकारक हो उसको सत्य कहते हैं किंतु यह लक्षण निरुक्तिकी अपेक्षासे किया गया है । अत एव केवल सत्के ही विषयमें नहीं, कदाचित असत्के विषयमें भी जो उपकारक हो उसको भी सत्पुरुषोंने सत्य माना है।
इस सत्यकी प्रवृत्ति व्रत समिति और धर्म इस तरह तीन जगह की जाती है। किंतु इनमें जो अन्तर है वह यही कि अनृतविरति महाव्रतमें तो सत् और असत् दोनों ही विषयों में थोडा भी और बहुत भी दोनों ही प्रकारसे बोला जाता है। तथा भाषासमितिमें सत् और असत् दोनो ही विषयोंमें किंतु थोडा ही बोला जाता है । एवं सत्य धर्ममें केवल सत् विषयमें ही किंतु थोडा और बहुत दोनों ही तरहसे बोला जाता है।
सत्यधर्मके अनन्तर क्रमके अनुसार संयम धर्मका वर्णन करना चाहते हैं। संयम दो प्रकारका माना है एक उपेक्षारूप दूसरा अपहृतरूप । आजकलके कितने ही समितियों में प्रवृत्ति रखनेवाले इन संयमामसे अपहृत संयमका पालन किया करते हैं-ऐसा उपदेश देते हैं ।
. प्राणेन्द्रियपरीहाररूपेपहृतसंयमे ।
शक्यक्रियप्रियफले समिता: केपि जाग्रति ॥ ३७॥ त्रस और स्थावर जीवोंकी पीडाको परिहार करने और स्पर्शनादिक इन्द्रियोंकी अपने अपने विषयों में प्रवृत्ति न होने देनेको अपहृत संयम कहते हैं । अपहृतसंयमके फल अथवा कार्यको उपेक्षासंयम कहते हैं। अपहृत संयमका अनुष्ठान शक्य और फल इष्ट है। अत एव इसके शक्यानुष्ठान और इष्ट प्रयोजनकी अपेक्षासे आजकल कितने ही समितियांके पालन करनेवाले इस अपहृत संयमके विषयमें ही प्रमादहित प्रवृत्ति किया करते हैं।
फलतः अपहृत संयम दो प्रकारका है-एक प्राणिसंयम दूसरा इन्द्रियसंयम । दोनों में भी प्रत्येकके उत्तम मध्यम जघन्य इस तरह तीन तीन भेद हैं । जो साधु इस संयमका पालन करता है उसको उसका अच्छी तरहसे अभ्यास करनेकेलिये प्रेरणा करते हैं --
अध्याय
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