________________
उसी प्रकार प्रत्याख्यानावग्ण क्रोधके द्वारा विदीर्ण हुआ मन भी सरल उपायके द्वारा ही शान्त होजाता है। जिस प्रकार लकडी आदिके द्वारा जलमें कीगई रेखा तुरंत मिटजाती है और फिर वह जल स्वयं जैसेका तैसा होजाता है उसी प्रकार संज्वलन क्रोधके द्वारा उत्पन्न हुआ मनोभाव भी सहसा स्वयं मिट जाता है। . मानके अनन्तानुबन्धी आदि अवस्थाओंकी अपेक्षा जो चार भेद बताये हैं वे क्रमसे पाषाणके स्तम्भ, हड्डी, लकडी, और वेतकी लताके समान होते हैं । जिस प्रकार पाषाणका स्तम्भ टूट सकता है पर नम्र नहीं हो सकता उसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मानके उदयसे ग्रस्त जीव नष्ट हो सकता है पर किसीकेलिये नम्र नहीं हो सकता। जिस प्रकार हड्डीमें अत्यंत अल्प नम्रता आ सकती है उसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरणमानी भी कुछ नम्रताको धारण कर सकता है। जिस प्रकार हड्डीकी अपेक्षा लकडी अधिक नम्र हो सकती है उसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरणमानीकी अपेक्षा प्रत्याख्यानावग्णमानी भी अधिक नम्र हो सकता है । तथा जिस प्रकार चेतकी लता सबसे अधिक नम्र होती है उसी प्रकार संज्वलनमानी भी अत्यंत नम्र हुवा करता है।
इसी प्रकार मायाके वासकी जडके समान, मेंढाके सींगके समान, तथा गोमूत्रके समान और चमरी गौके केशोंके समान इस तरह अनन्तानुबन्धी आदि चार भेद माने हैं। और लोभके कामगग (हिरिमिजीका रंग) चक्रमल (गाढीके पहियेका ओंगन) शरीरमल, और हल्दीके रंगके समान इस तरह अनन्तानुबन्धी आदि चार भेद बताये हैं। इनका उपमानार्थ स्पष्ट ही है।
जो साधु उत्तम क्षमादिकोंके द्वारा क्रोधादिकोंको जीत लेता है उसके लिये जीवन्मुक्ति सुलम समझनी चाहिये । क्योंकि वह शुक्लध्यानके द्वारा सहजमें ही उस अवस्थाको प्राप्त कर सकता है-ऐसा उपदेश देते हैं
मंख्यातादिभवान्तराब्ददलपक्षान्तर्मुहूर्ताशयान्, दृग्देशव्रतवृत्तसाम्यमथनान् हास्यादिसैन्यानुगान् । यः क्रोधादिरिपून् रुणद्धि चतुरोप्युद्धक्षमाद्यायुधै,
अध्याय