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अनगार
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शौचके माहात्माकी प्रशंसा करते हैं। निर्लोभतां भगवतीमभिवन्दामहे मुहुः ।
यत्प्रसादात्सतां विश्वं शश्वद्भातीन्द्रजालवत ॥ ३०॥ जिसके कि प्रसादसे शुद्धोपयोगमें स्थिर रहनेवाले साधुओंको यह सम्पूर्ण चराचर जगत निरंतर इंद्रजालके समान अनुपभोग्य मालुम पडने लगता है उस निर्लोभता-प्रकर्षको प्राप्त हुई लोभनिवृत्तिरूपी भगवतीके सन्मुख खडे होकर में पुन: पुन: नमस्कार करता हूं और उसकी स्तुति करता हूं।
दृष्टांत द्वारा लोभके माहात्म्यको प्रकट करते हैं। तादृक्षे जमदग्निमिष्टिनमृर्षि स्वस्यातिथेयाध्वरे, हत्त्वा स्वीकृतकामधेनुरचिरायत्कार्तवीर्यः कुधा ! जन्ने सान्वयसाधनः परशुना रामेण तत्सुनुना,
तदुर्दण्डित इत्यपाति निरये लोभेन मन्ये हठात् ॥ ३१ ॥ समस्त लोगोंके चित्तको चमत्कृत करदेनेवाले और जहाँपर कि अपना आतिथेय सत्कार किया जारहा था उसी जगह -जगदग्निके आश्रममें ही आतिथेय कार्यमें प्रवृत्त उस जगदग्नि ऋषिको ही मारकर उसकी कामधेनुको हस्तगत करलेने वाले कार्तवीर्यका जो उस जमदग्निके पुत्र परशुरामने क्रुद्ध होकर अपने परशुके द्वारा संतानसैन्यसहित वध किया उससे मुझको तो ऐसा जानपडता है मानो उसके लोभ कषायने ही यह समझकरके कि यह दुर्दण्डित हैविना अपराधके ही दूसरोंको दंड देनेवाला है उसे जबर्दस्ती नरकमें पटकदिया । भावार्थ-लोभके वश होकर मनुष्य निरपराधियोंके घात जैसा पाप भी करने लगता है जिससे कि उसको इसलोक और परलोक दोनों ही जगह दुःखमय ही फल प्राप्त होता है।
अध्याय