________________
अनगार
१८५
तो उसके शौचधर्म माना जायगा । क्योंकि मनके सम्पूर्ण परिष्पन्दोंके निरोधको मनोगुप्ति और लोभकी उत्कृष्ट निवृत्तिको शौचधर्म कहते हैं । यह दानों में अन्तर है । इस शौचधर्म को देवताके समान समझना चाहिये । क्यों कि यह अपने आश्रितोंका पक्षपात रखनेवाला है । अत एव इस शौचधर्मरूपी देवताका मुमुक्षुओंको अवश्य ही आराधन करना चाहिये । क्ये कि वह उस लाभ कषायका निग्रह करता है जो कि अपने प्राणश-मोहके मरते ही खयं भी मरने के लिये तयार हुई मायारूपी अपनी माताको अवलम्बन देता बचालेता है। जिस प्रकार पति के मरते ही उसका अनुगमन करने की इच्छा रखनेवाली स्त्रीको उसका पुत्र बचालिया करता है, उसी प्रकार मोह पिताके नष्ट होते ही मायारूपी माताको नष्ट होनेसे बचाने वाला यह लोभ ही है। इस प्रकारसे मायाके पोषक लोभका निग्रह शौच धर्म ही करता है । अतएव प्रत्येक मुमुक्षु को इस शौचरूपी देवताका आराधन करना ही चाहिये ।
जो लोग संतोषका अभ्यास करके तृष्णाको दूर करनेवाले हैं उनके अत्मध्यानमें होनेवाले उपयोगके उद्योगको प्रकाशित करते हैं
अविद्यासंस्कारप्रगुणकरणग्रामशरणः । परद्रव्यं गृध्नुः कथमहमधोधश्चिमरगाम् । तदद्योधद्विद्यादृतिधृतिसुधास्वादहृतत्,
गरः स्वध्यात्योपर्युपरि विहराम्येष सततम् ॥ २९ ॥ अनादि कालसे लेकर अबतक मैं, यह कितने दुःखकी बात है कि शरीर और आत्मामें अभेद-प्रत्ययरूप अविद्याकी वासनासे विषयों की तरफ उन्मुख हुई इन्द्रियों के वशमें पडकर और इमी लिये आत्मस्वरूपसे भिन्न शरी शादिकोंमें गृद्धियुक्त होकर नीचे नीचकी तरफ ही जारहा हूं । अतएव शरीर और आत्मामें भेदज्ञानके होजानेपर अब मैं उस अविद्याके विरुद्ध प्रकाशित होती हुई आरै बढती हुई विद्याके अन्तःसारस्वरूप संतोषमय सुधाका बार बार पान करनेके कारण तृष्णारूपी विषका परिहार होजानसे आत्मामें ही निरंतर प्रवर्तमान तथा निर्विकल्पतया निश्चल ध्यानके द्वारा निरंतर उन्नतोमत दशामें उपयुक्त होते जाना ही उचित समझता हूँ।
अध्याय
७४