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- अपने अपना पर-स्त्री पुत्रादिकोंके उपमोगों इन्द्रियों आरोग्य और माणोंकी गृद्धि रखनेवाला मृढ मनुष्य गुरुवष पितृवध आदिकोमसे ऐसा कौनसा अकृत्य है कि जिसको वह चाहे तभी नहीं कर सकता । अपितु सभी ॥ दुष्कृत्योंको वह कर सकता है । अत एव मोहको छोडकर इस लोभका भी निरसन ही करना चाहिये । . लोमके वश होते ही मनुष्यके गुण नष्ट हो जाते हैं इस बातको बताते हैं।--
तावत्कोत्त्यै स्पृहयति नरस्तावदन्वेति मैत्री, तावद् वृत्तं प्रथयति विभांश्रितान् साधु तावत् । तावजानात्युपकृतमघाच्छङ्कते तावदुच्चै,--
स्तावन्मानं वहति न वशं याति लोभस्य यावत् ।। २७ ॥ . मनुष्य तभी तक कीर्तिकी स्पृहा और उसका संचय कर सकता तथा अखण्डरूपमें उसको कायम रख सकता, एवं मैत्रीका भी अविच्छिन्नतया पालन वह तभी तक कर सकता, और अपने चारित्रकी वृद्धि भी त. तक कर सकता है, इसी प्रकार अपने आश्रित व्यक्तियोंका भले प्रकार पोषण भी वह तभी तक कर सकता, और किसीके किये हुए उपकारका स्मरण, या पापसे भय तभी तक कर सकता, एवं अपने बढे हुए मान-आत्मगौरव का धारण या रक्षण भी वह तभी तक कर सकता है। जब तक कि वह लोभके वश नहीं होता । किंतु उसके अधीन होते ही ये सम्पूर्ण गुण निःसन्देह नष्ट होजाते हैं ।
जिस उपायसे लोभका विजय किया जा सकता है उसका आराधन करने के लिये मुमुक्षुओंको उत्साहित करते हैं:
.. "प्राणेशमनु मायाम्बां मरिष्यन्तीं विलम्बयन् ।
- लोभो निशुम्भ्यते येन तद्भजेच्छौचदैवतम् ॥२८॥ जो व्यक्ति मनोगुप्तिका पालन नहीं कर सकता वह यदि परवस्तुओंमें अनिष्ट उपयोगका परित्याग करदे
अध्याय