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अनगार
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इसी प्रकार “कुञ्जरो न नरः" ऐसे मायापूर्ण वचनोंसे युक्त "अश्वत्थामा मारागया " इन वचनोंके द्वारा अपने गुरु द्रोणाचार्यको धोखा देनेके कारण युधिष्ठिरको एसी ग्लानि हुई थी कि जिसके सबबसे उन्होंने अपमेको सत्पुरुषोंसे छिपालिया था-वे सज्जनोंको अपना मुख दिखाना नहीं चाहते थे । भावार्थ--इस मायाके प्रसाद से बडे बडे पुरुषोंको भी क्लेश ही हुआ है ऐसा समझकर हृदयं तथा कर्णतकको विदीर्ण करदेनेवाली इस मायाका साधुओंको परित्याग ही करना चाहिये।
इस प्रकार आर्जव धर्मका निरूपण करके शौच धर्मका व्याख्यान करना चाहते हैं। किंतु उसमें सबसे पहले निकटवर्ती अथवा यथाप्राप्त विषयों में गृद्धि उत्पब करनेवाले लोभकषायका अवश्य ही निराकरण करनेकेलिये मुमुक्षुओंको उपदेश देते हैं । क्योंकि यह लोभ सम्पूर्ण पापोंका मूल तथा समस्त गुणोंका विध्वंस करनेवाला है और इसका निराकरण होनेपर ही शौच धर्म प्रकट हो सकता है। -
लोभमूलानि पापानीखेतधैर्न प्रमाण्यते ।
स्वयं लोभाद् गुणभ्रंशं पश्यन्तः श्यन्तु तेपि तम् ॥ २४ ॥ जो लोग " लोभमूलानि पापानि-समस्त पापोंका मूल लोभ कवाय ही है" इस जगत्प्रसिद्ध वाक्यको प्रमाण नहीं मानते उनको कमसे कम यह देखकर तो भी, कि इसके निमित्तसे ही दया मैत्री साधुता आदि समस्त गुणोंका विध्वंस होता है, लोभको कुश कर डालना चाहिये।
भावार्थ--जो पुण्यपापका विश्वास करनेवाले आस्तिक हैं वे तो इसको पापका मूल समझकर छोडते ही हैं किंतु जो वैसा विश्वास नहीं करते उनको कमसे कम अपने इस अनुभवसे तो भी इस लोमको छोडना चाहिये कि वह समस्त गुणोंका नाशक है । जैसा कि व्यासने भी कहा है कि:--
भूमीठोपि रथस्यास्तान पार्थः सर्वधनुर्धरान् । एकोपि पातयामास लोमः सर्वगुणानिव ॥
अध्याय