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बनगार
मझना चाहिये । जिस प्रकार विजयलाभकी इच्छा रखनेवाला कोई भी वीर योद्धा दारिद्रयादिक दुःखोंको नष्ट करने केलिये अपने मंत्री या सेनापति आदि अधिकारीके कथनानुसार संग्राममें अपना प्रहार करनेकेलिये उद्यत हुई शत्रुसैन्यका तीक्ष्ण शस्त्रोंके द्वारा निरसन करनेकेलिये मित्रको उत्तेजित किया करता है उसी प्रकार मुमुक्षुओंको दुगेतियों का निराकरण करनेकोलिये सद्गुरुओंके उपदेशानुसार प्रतिज्ञाओंमें स्थिर होकर धर्मरूपी शत्रुसैन्यका उनकी सम्पूर्ण शक्तियोंका नाश करने सर्वथा समर्थ निर्मल अहिंसादिक व्रतोंके द्वारा नाश करनेकी इच्छासे मित्रके समान अभिमानको उत्तेजित करना चाहिये । क्योंकि आद्य अवस्थामें मुमुक्षुओंकेलिये अभिमान भी विधेय हो सकता है । क्योंकि उसके निमित्तसे कोका क्षपण करने की प्रवृत्ति में उत्तेजना लाई जा सकती है।
यद्यपि मानकषायकी शक्ति मार्दव धर्मके द्वारा अभिभूत हो जाती है फिर भी उसका सर्वथा नाश शुक्लध्यानकी प्रवृत्तिसे ही हो सकता है। अत एव वैसा करनेकेलिये उपदेश देते हैं:
मार्दवाशनिनिनपक्षो मायाक्षितिं गतः
योगाम्बुनैव भेद्योन्तर्वहता गर्वपर्वतः ॥ १५ ॥ मार्दवरूपी वज्रके द्वारा पक्षच्छेद होजानपर मायारूपी पृथ्वीपर पडे हुए गर्वरूपी पर्वतका भेदन अन्तरङ्गमें वहते हुए योगरूपी जलके द्वारा ही हो सकता है । भावार्थ-जिस प्रकार इन्द्र के द्वारा छोडे हुए वज्रसे पक्षच्छेद होजानेपर पर्वतका पृथ्वीपर पतन तो होजाता है किंतु वास्तविक विदारण नहीं होता सो वह उसके ही भीतर वहनवाले जलके ही द्वारा हो सकता है। इसी प्रकार मार्दव भावनाके द्वारा शक्तिविशेषके नष्ट होजानेसे गवरूपी पर्वत संज्वलनमायारूपमें आकर प्राप्त तो होजाता है किंतु उसका वास्तविक निहग्ण आत्मस्वरूपमें संततिक्रमसे प्रवर्तमान पृथक्त्व वितर्कवीचार नामके शुक्ल ध्यानद्वारा ही हो सकता है । क्योंकि क्षपकश्रेणी में शुक्ल ध्यानके द्वारा मान संज्वलनका उन्मूलन माया संज्वलनमें क्षेपण करके ही किया जाता है।
मानके निमित्तसे महापुरुषों के भी अभिप्राओंकी जो बडी भारी क्षति हुई है या हुआ करती है उस
अध्याय