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अनगार
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अध्याय
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क्रियेत गर्व: संसारे न श्रूयेत नृपोपि चेत् । दैवाज्जातः कृमिथे भृत्यो नेक्ष्येत वा भवन् ॥ १३ ॥
दूसरे साधारण जीवोंकी तो बात ही क्या, एक राजातक अपने संचित पापकर्मके उदयसे मरकर विष्टाका कीड़ा हुआ, यह बात यदि आप्तसंप्रदाय के द्वारा सुननेमें न आई होती, अथवा आजकल भी एक देशका नरेश क्षणभरके बाद किंकर होता हुआ देखनेमें न आता होता, तब तो कदाचित संसारमें गर्व किया भी जा सकता था । किंतु यह बात नहीं है- उक्त सभी बातें सुनने और देखने में आती हैं। अत एव संसारके इस दुःस्वरूपका जाननेवाला कोई भी मनुष्य किसी भी वस्तु के निमित्तसे गर्व करना कर्तव्य किस तरह समझ सकता है।
समीचीन व्रतोंका अभ्यास करनेवाले साधुओं को आरम्भिक अवस्थामें अभिमानको जीतनेका उपाय करना चाहिये किंतु कर्मों को नष्ट करनेकेलिये उसको उत्तेजित करना चाहिये। ऐसा उपदेश देते हैं-:
प्राच्यादयुगीनानथ परमगुणग्रामसमृद्धयसिद्धा, —
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ना ध्यायन्निरुन्ध्यान्म्रदिमपरिणतः शिर्मदं दुर्मदारिम् । छेत्तुं दौर्गत्यदुःखं प्रवरगुरुगिरा संगरे सद्रतास्त्रैः, क्षेप्तुं कर्मारिचक्रं सुहृदमिव शितैर्दीपयेद्वाभिमानम् ॥ १४ ॥
जो आत्माका अपाय करे उसको शत्रु कहते हैं। मान कषाय आत्माका अत्यंत अपाय ही करता है अत एव उसको भी प्रबल शत्रुके ही समान समझना चाहिये । और इसीलिये जो आत्महितको सिद्ध करना चा हते हैं उन साधुओंको मार्दव धर्मसे युक्त होकर तथा पूर्वकालके और इस युगके भी उन सम्पूर्ण साधुओंको जो कि अपने ज्ञान विनय दया सत्य प्रभृति परम गुणगणोंकी समृद्धि के द्वारा प्रसिद्धि प्राप्त करचुके हैं तत्वतः ध्यान करते हुए उस दुष्ट मदरूपी शत्रुका निवारण करना ही उचित है। अथवा इस मान कषायको मित्रके समान स
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