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बनगार
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बच्याय
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पराभ्यूहस्थानान्यपि तनुतराणि स्थगयति ।
जनं विद्वानेवं सकलमविसंधाय कपटे, - स्वस्थः स्वानर्थान् घटयति च मौनं स भजते ।।
यह माया इस लोक और परलोक दोनों ही जगह दुःखका ही कारण है। इस बातको दिखाते हैं:
यः मोढुं कपटीत्यकीर्तिभुजगमष्टे श्रवन्तश्वरी, सोपि प्रेत्य दुरत्ययात्ययमयीं मायोरगीमुज्झतु ।
नो चेत्स्त्रीत्वनपुंसकत्वविपरीणामप्रबन्धार्पितं,
ताच्छील्यं बहु धातृकेलिकृतपुंभावोप्यभिव्यक्ष्यति ॥ १८ ॥
" यह कपटी है " इस तरहकी अपकीर्तिरूप सर्पिणीके अपने कानके पास घूमनेको जो सहन नहीं कर सकता उसकी तो बात ही क्या, जो सहन कर सकता है उसको भी चाहिये कि वह परलोकमें निःसीम दुःखोंके देने वाली इस मायासणीको दूरसे ही छोड़ दे। क्योंकि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो जिसके उदयसे पुंस्त्व पर्याय प्राप्त होती है उस कर्मके निमित्तसे पुलिङ्ग पर्याय मे युक्त रहते हुए भी अपने स्त्रीत्वरूप विविध परिणामोंकी संततिके द्वारा मिश्रित हुए उन प्रभूत भावोंको भावत्रीत्वं या भावनपुंसकत्वको अवश्य ही प्रकट कर देगा |
. भावार्थ - मायाचारका त्याग न करनेपर संसार में जा अपयश होता है सो तो होता ही है किन्तु उससे परलोकर्मे स्त्रीत्व या नपुंसकत्व पर्यायकी जिससे प्राप्ति हो ऐसे कर्मका संचय भी होता है । अत एव वर्तमान में भले ही वह पुरुषविधायक कर्मके उदयसे पुल्लिङ्ग दीखे किन्तु मरकर वह अवश्य ही स्त्री या नपुंसक होगा ।
मायाचारीका लोकमें बिलकुल भी विश्वास नहीं होता इस बातको प्रकाशित करते हैं
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