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पर लक्ष्य दिलाते हुए इस बातका उपदेश देते हैं कि उसका नाश करनेके लिये मुमुक्षुओंको मार्दव भावोंका अवश्य ही पालन करना चाहियेः-.
मानोऽवर्णमिवापमानमभितस्तेनेऽर्ककीर्तेस्तथा. मायाभूतिमचीकरत्सगरजान् षष्टिं सहस्राणि तान् । तत्सौनन्दमिवादिराट् परमरं मानग्रहान्मोचयेत, तन्वन्मार्दवमाप्नुयात् स्वयमिमं चोच्छिद्य तद्वच्छिवम् ॥ १६॥
अनगार
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.. अहंकारके द्वारा आदिचक्रवर्ती भरतेश्वरके पुत्र अर्ककीर्तिका जो अपमान अपयश और तेजोवध हुआ वह आगममें प्रसिद्ध है। इसी प्रकार इस मानकषायने आपप्रसिद्ध सगरचक्रवर्तीके साठ हजार पुत्रोंकी माण. केतु नामक देवके द्वारा जो मायाभस्म करादी. सो भी आगममें प्रसिद्ध ही है । अत एव साधुओंको चाहिये कि यदि कोई इस अहंकाररूपी भूतके आवेशसे ग्रस्त हुआ हो तो वे उसको शीघ्र ही उससे छुडानेका इस तरहसे प्रयत्न करें कि जिस तरहसे भरतराजने बाहुबलिकुमारके विषयमें किया था । तथा स्वयं भी भरतचक्रवर्तीकी ही तरह मार्दव धर्मको धारण करके और मानकषायरूपी ग्रहको निर्मूल करके अभ्युदय' तथा मोक्षपदको प्राप्त करना चाहिये। क्योंकि जो पुरुष मार्दवधर्मसे युक्त है उसका गुरुजन अनुग्रह करते और साधुगण भी मान करते हैं। तथा अन्तमें वह सम्यग्ज्ञानादिकका पात्र बनकर स्वर्गापवर्गरूपी फलको प्राप्त करलेता है।
क्रमप्राप्त आर्जव धर्मका वर्णन करनेकी इच्छास सबसे पहले सर्वथा परिहरणीय मायाके विलासोको ब. ताते हैं:
क्रोधादीनसतोपि भासयति या सद्वत सतोप्यर्थतो,