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अनगार
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अध्याय
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उसे भोगना पडता है। क्योंकि जीवोंको उनका अपमान - महत्वकी हानि ज्वरसे भी अधिक तीव्र संताप करनेवाला और दुःख देनेवाला है। तथा यह निगोदादिक नीच पर्यायोंमें होनेवाला अपमान अभिमानके निर्मित्तसे ही होता है जैसा कि आगममें कहा है कि
जातिरूपकुलैश्वर्यशील ज्ञानतपोबलैः । कुर्वाणोहंकृतिं नीचं गोत्रं बध्नाति मानवः ॥
जाति आदि आठ विषयोंका मद करनेवाला नीचगोत्रका बंध करता है।
पूर्वोक्त प्रकारके दुःखद मानका मर्दन मार्दवधर्म ही कर सकता है । अत एव उसकी प्रशंसा करते हैं
करते हैं ।
भद्रं मार्दववज्राय येन निर्लुनपक्षतिः ।
पुनः करोति मानाद्विर्नोत्थानाय मनोरथम् ॥ १२ ॥
उस मार्दवरूपी वज्रका कल्याण हो जिसके द्वारा अपने पक्ष शक्तिविशेषके समूल छिन होजानेपर यह मानरूपी पर्वत पुनः उठनेका प्रयत्न नहीं करसकता । भावार्थ - मानके दूर करनेको मार्दव कहते हैं। जाति रूप कुल ऐश्वर्य आदि अतिशयोंके रहते हुए भी उनका मद न होना, अथवा दूसरोंके द्वारा किये गये तिरस्कार आदि निमित्तोंके मिलनेवर भी अभिमानका जागृत न होना, यद्वा अपने सामने दूसरोंको तुच्छ समझनेके सकषाय भावका उद्भूत न होना आदि मार्दव कहाता है। इस मार्दवधर्मरूपी वज्रके द्वारा ही मानरूपी पर्वतका चूर्ण किया जा सकता है । अत एव इस अपूर्व धर्मका सदा कल्याण हो ।
अहंकार कभी भी कर्तव्य नहीं हो सकता इस बातका उपदेश देनेकेलिये संसारकी दुरवस्थाको प्रकट
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