________________
बनगार |
अनगार
१७१
दुःख नहीं भोगना पडता । उसको सर्वत्र सम्मान सत्कार आदिका लाभ ही होता है।
क्रोधका फल अपकीर्ति तथा दारुण दुःख ही है, इसी बातको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हुए उसका दूरहीसे परित्याग करनेका उपदेश देते हैं
नाद्याप्यन्त्यमनोः स्वपित्यवरजामर्षार्जितं दुर्यशः, प्रादोदोन्मरुभूतिमत्र कमठे वान्तं सकृत् कुद्विषम् । दग्ध्वा दुर्गतिमाप यादवपुरीं द्वीपायनस्तु क्रुधा,
तत्क्रोधं ह्यगिरत्यजत्वपि विराराधत्यरी पार्श्ववत ॥ ८॥ अन्तिम मनु-भरतचक्रवर्तीका अपने छोटे भाई बाहुबलि कुमारके ऊपर किये गये क्रोधद्वारा संचित अपयश क्या आजतक इतना समय बीतजानेपर भी सो गया, नहीं, वह बरावर जागृत है और अपना काम कर रहा है। इसी प्रकार अपने बडे भाई कमठके ऊपर केवल एक ही वार छोडे हुए क्रोधरूपी विषने क्या मरुभूति-पार्श्वनाथस्वामीके पूर्वभवके जीवको बार बार और अतिशयरूपसे संतप्त नहीं किया ? अवश्य किया। तथा क्रोधानल यद्वा तपोलब्धिविशेषके द्वारा उत्पन्न हुए तैजस शरीरक द्वारा द्वारावती नगरीको भस्मसात् करके स्वयं दुर्गतिको प्राप्त होनेवाले द्वीपायन तपस्वीका नाम किसने नहीं सुना है ! फलतः यह बात स्पष्ट है कि क्रोध कषाय मनुष्योंकेलिये शत्रुके समान अपकार करनेवाला है अत एव उक्त पार्श्वनाथ स्वामीके ही ममान साधुओंको क्षमास्वियोंका धुरीण बनकर किसी शत्रुके द्वारा अपनी पुनः पुनः तथा अतिशयेन विराधना भी किये जानेपर शत्रुतुल्य क्रोधका क्षेपण अथवा शमन करना उचित है।
इस प्रकार उत्तम क्षमाधर्मका निरूपण करके क्रमप्राप्त मार्दवधर्मका लक्षण करनेकेलिये जिसका उदय
अध्याय
१०१
१- इसको अपनेमें दोषोंके अभावका चिन्तवन करना कहते हैं।