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अनगार
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अध्याय
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पापयोगान्निगृह्णीयाल्लोकपंक्त्यादिनिस्पृहः ॥ १५४ ॥
मिथ्यादर्शन प्रभृति जो तीन प्रकारके कर्मबन्धके कारण बताये हैं वे आत्माके प्रतिपक्षी हैं। उनसे - रत्नत्रयस्वरूप अपनी आत्माको सुरक्षित रखनेकेलिये लोकपूजा लाभ ख्याति आदि विषयोंमें स्पृहा न रखकर व्रतोद्यत साधुको षापयोम - व्यवहार नयसे पापकर्मके कारण और निश्चय नयसे शुभाशुभ कर्मोंके आत्रका कारण होनेसे निन्द्य मनवचनकायके व्यापारका निग्रह करना चाहिये ।
भावार्थ -- मनवचनकाय के द्वारा होनेवाले आत्मप्रदेशपरिस्पन्दरूप योग के समीचीन निग्रहको योगनिग्रह कहते हैं। जैसा कि आगभमें भी कहा है कि
- वाक्कायचित्तजानेकसावद्यप्रतिषेधकम् - त्रियोगरोधकं वा स्याद्यत् तद् गुप्तित्रयं मतम् ॥
मन वचन और कायके द्वारा होनेवाले अनेक सावद्य कर्मोंके रोकने को ही गुप्ति कहते हैं । अत एव गुप्ति तीन प्रकारकी बताई है – मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्ति । मोक्षशास्त्रमें भी कहा है कि " म्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः "। यहांपर समीचीनताका अर्थ यही है कि लोकपूजादिक में स्पृहा न रखकर और रत्नत्रय अथवा तत्स्वरूप आत्माकी प्रतिपक्षियोंसे रक्षा करनेकेलिये । क्योंकि इस प्रकारसे किया गया ही योगनिग्रह मुमुक्षुओंके लिये इष्टका साधक और अत एव समीचीन हो सकता है, अन्यथा नहीं । व्यवहार नयसे जो पापकर्मके संचयका कारण है उसको किन्तु निश्चय नयसे योगमात्रको आचार्योंने निन्द्य कहा है ।
उपर्युक्त गुप्तियों का पालन करनेकेलिये दृष्टान्त देकर साधुओं को सावधान करते हैं:प्राकारपरिखावप्रैः पुरवद्रत्नभासुरम् ।
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